गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

ऐसी भी क्या जल्दी थी सरकार !

                                                          शरद सत्र विश्लेषण- सतीश एलिया

विपक्ष के सहयोग से पहले ही दिन प्रश्नकाल चलने देने के शुभ संकेत से आगाज हुए शरदकालीन सत्र का समापन तय वक्त से दो दिन पहले ही विपक्ष की नाराजगी भरे माहौल में हुआ। चौदहवीं विधानसभा के दो साल के दौरान हुए शुरूआती और विशेष सत्र को छोड़ दें तो यह आठवां सत्र इस मायने में पहला और स्वागत योग्य रहा कि विपक्ष ने न केवल सदन की कार्यवाही में भाग लिया बल्कि विधायी कार्यों पर चर्चा भी हो सकी। यह बात दीगर है कि पक्ष-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप वॉकआउट और बहिष्कार के भी अवसर आए लेकिन यह तो संसदीय व्यवस्था का अंग है, पक्ष-प्रतिपक्ष की अपनी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। सत्र 10 बैठकों वाला था और उसे भी दो दिन छोटा कर देना विपक्ष को इसलिए भी अखर गया क्योंकि सूखे जैसे पूरे प्रदेश को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर नियम 139 के तहत तय चर्चा ही नहीं हुई, जबकि उसे मंगलवार तक कार्यसूची में शामिल किया जाता रहा। आखिरी दिन की कार्यसूची में इसे शामिल किए बिना सरकारी कामकाज निपटाकर संसदीय कार्य मंत्री के प्रस्ताव पर सत्रावसान कर दिया गया। संसदीय परंपरा में विधायी कार्य के लिए सत्र बुलाए जाते हैं लेकिन वे केवल इसी के लिए नहीं बुलाए जाते, विपक्ष और जनता के मुद्दे भी उतने ही आवश्यक हैं। बाकी बचे दो दिन में सूखे पर चर्चा क्यों नहीं हो सकती थी? विपक्ष का यह सवाल आखिर जनता का सवाल भी तो है। 
सत्र के दौरान विधेयक पारित हुए, मुख्यमंत्री ने आगे बढ़कर कई सवालों के न केवल जबाव दिए बल्कि घोषणाएं भी कीं। विधानसभा अध्यक्ष डा. सीतासरन शर्मा दो साल में पहली दफा बतौर अध्यक्ष ज्यादा प्रभावी, फैसले लेने वाले और विपक्ष का हित संरक्षण करते नजर आए। मगर आखिरी दिन बहुजन समाज पार्टी के पांच विधायकों का यह कहकर सदन से उठकर चले जाना कि दो साल में एक भी दफा उन्हें ध्यानाकर्षण सूचना का मौका नहीं मिला, जनप्रतिनिधियों की निराशा का प्रतीक है। आखिर वे जनता के ही तो मुद्दे उठाना चाहते होंगे। 
इन आठ दिनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि नाफरमान अफसरों, भ्रष्टाचार, बेलगाम पुलिस के खिलाफ पक्ष-विपक्ष के विधायकों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर एकजुटता दिखाई। इसे मप्र की सियासत और जनता की हित चिंता के लिहाज से शुभ संकेत ही माना जाना चाहिए। यह उम्मीद भी की जाना चाहिए कि जनतंत्र की ताकत से बेलगाम अफसरों पर लगाम लगेगी और संवेदनहीन तंत्र की तंद्रा टूटेगी। बेहतर होता सूखे पर भी चर्चा हो जाती ताकि विपक्ष ने जिस तरह सत्रारंभ के दिन सहयोग दिखाया था वह समापन बेला में भी बना रहता। इस अप्रिय समापन का असर अगले सत्र में दिखेगा। अगला सत्र बस डेढ़ महीना दूर ही तो है।