रविवार, 18 नवंबर 2012

sadmein mein kunba makhanlal ka

सदमे मंे कुनबा माखनलाल का

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुनबे के पहले बैच पर वज्रपात हुआ है। हमारा साथी यार वेदव्रत गिरि काल के क्रूर हाथों ने हमसे छीन लिया है। शनिवार को यह मनहूस ह्रदय विदारक समाचार मिला तो दिमाग सुन्न हो गया। अभी दीपावली के एक दिन पहले ही तो भोपाल में मुख्यमंत्री निवास में दोपहर भोज में हम एक घंटे साथ थे। उसने परंपरानुसार मुझे भरपूर गालियां दी और मैंने भी। हमारा याराना ही ऐसा था। हम पहले बैच के थर्टी थ्री ईडियटस थे जो साल भर हाॅस्टल में भी साथ रहे और 21 बरस से मुसलसल यारी मंे थे। सडक हादसे से हमसे हमारा एक ईडियट छीन लिया। इसके पहले करीब आठ बरस पहले प्रदीप दीक्षित की असमय मौत हुई। वेद ने ही बताया कि अवनीत सिन्हा नहीं रहा। तैंतीस में से तीस रह गए हम। वेद को हम न जाने कितने नामों से बुलाते थे। एक जगह थमकर नहीं रहना, धुमक्कडी उसका स्वभाव था। हमने उसे यायावर नाम दिया था। बोलचाल में इतना बेलाग कि गाली उसका तकिया कलाम सा था। हम कहते तुम साले गंवार हो गंवार ही रहोगे। बीडी पर लंबी कविता सुनाता था, अब भी कभी फरमाइश पर मैं उससे वो कविता सुन लेता था। हाॅस्टल में उसके गीतों की गूंज अब भी दिमाग में सुनाई दे रही है। गांडीव, अमर उजाला, चैथा संसार, दैनिक भास्कर, ईटीसी से लेकर राष्ट्रीय सहारा और फिर अपनी बेवसाइट माय न्यूज डाॅटकाॅम और मेरी खबर डाॅटकाम। पत्रकारिता का यायावर वेद । कभी मजाक का बुरा नहीं मानने वाला गिरि अब नहीं है। हमारी प्यारी सखी अल्पना पर जो विपदा आई है, उसकी कल्पना करके ही कलेजा मुहं को आ रहा है। मैंने कल उससे फोन पर बात की थी। तब तक उसे बताया नहीं गया था कि वेद नहीं रहा। उस बिचारी को तो यही बताया गया था कि एक्सीडंेट हुआ है, अस्पताल में है। अब जबकि उसे पता चल गया है तो उससे बात करने का माददा ही नहीं है मुझ में। कल संजीव, अनिल पाराशर, रीमा दीवान, जितेंद्र रिछारिया को मैंने फोन पर सूचना दी तो सब सदमे में डूब गए। हे ईश्वर ये क्यों किया।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

एक दीप धरें मन की देहरी पर

आप सभी को सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। दीप पर्व पर मेरी अपनी एक कविता सुधिजनों को समर्पित है।
 
 
 
 
एक दीप धरें मन की देहरी पर
धीरे धीरे घिरता है तम,
ग्रस लेता जड़ और चेतन को
निविड़ अंधकार गहन है ऐसा सूझ न पड़ता
हाथ को भी हाथ
क्या करें,
कैसे काटें इस तम को
यह यक्ष प्रश्न
विषधर सा
कर देता किंकर्तव्यविमूढ़
तो जगती है एक किरन उम्मीद की
टिमटिमाती कंपकंपाती दीप शिखा सी
आओ लड़ें तिमिर अंधकार से,
एक दीप धरें मन की देहरी पर
प्रेम की जोत जगाएं हम
मिटे अंधियारा
बाहर का भीतर का भी,
आओ दीपमालिका सजाएं,
दीपावली बनाएं 
एक दीप धरें मन की देहरी पर।।
- सतीश एलिया