शनिवार, 22 मई 2010

मन के भीतर भी खिलता है कोई फूल जैसे गुलमोहर

चिलचिलाती धूप हो कि संघर्षों की तपन,
बैचेन होता है तन और मन भी हो जाता है उदास
कि मिल जाए कहीं छांव सजर की
कि मिल जाए छांव आंचल की
तपती दुपहरी में बैचेन मन को सुकून देती हैं यादें
वो पल वो लम्हे जो कभी बीते थे स्नेह की, प्रेम की छांव में।

ऐसे ही संघर्ष पथ के पथिक को
चिलचिलाती धूप में भी
होती है इक उम्मीद
कि मिल जाएगा अभी कुछ ही देर में सायेदार पेड
जो दे देगा पिता की तरह भरोसा
बेटा संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता,
चलते रहो चलते रहो इसी तरह

अलसायी सी दोपहर में जब सूर्य होता है रौद्र रूप में
बरसते हैं अंगारे आसमान से
तो अमराई में आम के पेड के तले
दोस्तों के संग लेटे लेटे
लगते हैं भले लू के थपेडे भी
काश! कि लौट आएं वे दिन
पूरी दुपहरी बिता दें आमों तले
करें जमकर हंसी ठिठोली

वे दिन जब हॉस्टल की खिडकी पर
हरी हरी शाखें सजर की करतीं थीं बातें सी
और जैसे जैसे चढता था सूरज का ताप
उनमें खिलने लगते थे चटक लाल रंग के फूल
मन भी हो जाता था खिला खिला,
उदासी भी हो जाती थी जाने कहां तिरोहित
आज सोचता हूं वे भी क्या दिन थे
खिलता है अब भी सजर गुलमोहर का
पर रंग अब उतने चटक नहीं लगते
उदासी अब तिरोहित नहीं हो पाती
जाने क्या बात है, सजर भी अब उदास है
दरअसल यह सब तभी भाता है मन को
जब बाहर की तरह मन के भीतर भी
खिलता है कोई सूर्ख फूल जैसे गुलमोहर
-सतीश एलिया

शनिवार, 15 मई 2010

एक साल.. और सैकड़ा हुआ पार.. शुक्रिया मेहरवानी, करम


दोस्तों ठीक एक साल पहले 15 मई 2009 की दोपहर इस ब्लॉग बेबाकवाणी का जन्म हुआ था। आज पहली सालगिरह है। 365 दिन में सौ पोस्ट आपकी अदालत में पेश हो चुकी हैं। इसमें सामयिक, राजनीतिक टिप्पणियां ज्यादा हैं। वजह है मेरा खबरनवीस होना। हालांकि कविताएं और दिल की बातें भी यदा कदा लिखता रहा। मेरा अनुभव है कि अखबार में भी और ब्लॉग पर अब लोग राजनीतिक बातों को उतना पसंद नहीं करते। मेरी अब तक की पोस्ट की अलग अलग पाठक संख्या भी इस निष्कर्ष की ताईद करती है। लोग दिल की बातें न केवल पढते हैं बल्कि उन्हें संवेदना के धरातल पर महसूस भी करते हैं। राजनीतिक टिप्पणियों में वे ही पोस्ट ज्यादा पढी गईं जिनमें मानवीय मूल्यों की तरफदारी करते हुए जनता को बेवकूफ बनाने वालों को शब्दों के झापड मारे गए। मेरी सबसे ज्यादा पढी गई पोस्ट रही- अब आई लालू की अक्ल ठिकाने...। रही जबकि मप्र के मुख्यमंत्री के बारे में पोस्ट- भाभीजी की तबियत अब कैसी है...। दूसरे नंबर पर रही। बहरहाल संतोष है कि पाठक संख्या साढ.े तीन हजार पार कर चार हजार की तरफ अग्रसर है। समय समय पर टिप्पणी करने वाले मित्रों को धन्यवाद, शुक्रिया, मेहरबानी, करम। ऐसा ही साथ बनाए रखिए और बेबाकवाणी के बारे में बेबाक टिप्पणी देते रहिए।

रोने भी नही दोगे तो कहां जायेंगे

माया महाठगिनी हम जानी .. कि जगह राजनीति महाझूटी हम जानी कहा जाये तो ज्यादा सटीक होगा। मध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस में जो तमाशा चल रहा है। वो जनता के साथ तो मजाक सा तो बन ही गया है अब भावनाओं कि मानवीय अभिव्यक्ति को भी इस प्रहसन में शामिल कर हंसी उड़ाई जा रही है। भाजपा विधायक ललिता यादव को विधानसभा जाते वक़्त कांग्रेस विधायकों कि फब्तियों का सामना करना पड़ा। जब उन्होंने यह बात विधानसभा में बताई तो स्पीकर रोहानी रो पड़े। इस वाकये को कांग्रेस ने अपनी संगोष्ठी में १९ साल पुरानी घटना से जोड़ कर कांग्रेस विधायक अजय अर्जुन सिंह भी रो पड़े। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन शुक्रवार को कांग्रेस नेताओं ने चोराहे पे रास्ता रोककर जनता को भरी गर्मी में रास्ते भटकने पे मजबूर किया। दूसरी तरफ विधयाकों ने खली बाल्टी लेकर प्रदर्शन किया। इसमें भी गोविन्द राजपूत रोने लगे। रोने को मजाक बना दिए जाने के यह प्रहसन उस वक़्त चल रहे थे जब मंडला में करंट लगने से २८ लोग बस में खाक हो रहे थे। सरकार विधानसभा में प्रतिपक्ष कि गैर्मोजूदगी में मध्यप्रदेश को स्वर्णिम बनाने कि योजनाओं पे खुद ही घोषणा कर अपनी ही पीठ थपथपा रही थी। जनता विधायक चुनती है। जनहित के काम करने के लिए ना कि आपस में तमाशे कि होड़ के लिए। ये नेता जनता को दुःख तकलीफ में रोने भी नही चाहते। इनका नारा है तकलीफें तुम्हे हसने नही देंगी और हम तम्हे रोने नही देंगे.

शुक्रवार, 14 मई 2010

वे भी और ये भी.. कर रहे हैं नाटक

खोखले नारों से विकास और थोथे विरोध प्रदर्शन भारतीय राजनीति को प्रहसन से ज्यादा पहचान नहीं देते, नतीजा आजादी के पैंसठ बरस बाद भी बुनियादी समस्याएं जस की तस हैं। लोगों में नागरिक जिम्मेदारी का भाव है ही नहीं। मध्यप्रदेश विधानसभा में चार दिन का विशेष सत्र बुलाया गया, घोषित लक्ष्य था मप्र को स्वर्णिम बनाने के एक सूत्रीय एजेंडे पर चर्चा कर रोडमैप बनाना था। लेकिन सामान्य सत्रों मंे ही प्रदेश के विकास पर न पक्ष और न ही विपक्ष की खास रूचि नजर आती है, ऐसे में विशेष सत्र पर राजनीतिक खींचतान अवश्यंभावी थी। विपक्ष ने पहले तो सत्र पर हामी भर दी और फिर सत्र को असंवैधानिक करार देकर उसका वहिष्कार कर धरना, समानांतर संगोष्ठी और मसखरे अंदाज में सरकार की खिल्ली उडाई। असल में 10 साल दिग्विजय सिंह के नेत्रत्व में कांग्रेस की सरकार रही और मप्र को बीमारू राज्य का तमगा मिलना ही इकलौती उपलब्लिध रही, इसी वजह से जनता ने भाजपा को मौका दिया। लेकिन जिन वादों पर सरकार बनी थी उसे पहले पांच साल और दूसरी बार सरकार बनने के करीब डेढ साल में कुछ खास नहीं निभाया जा सका। मसलन बिजली के मामले में हालात लगभग वैसे ही हैं। गांवों में 18 घंटे और शहरों में दो से 12 घंटे तक बिजली गुल रहती है। हां सडकों के मामले में हालात अच्छे हो गए हैं। भ्रष्टाचार के मामले दिग्विजय सरकार की तुलना में अब ज्यादा सामने आए हैं, भाजपा भ्र्रष्टाचार को मुददा बनाती रही और अब उसके राज में कई मंत्रियों के अलावा खुद मुख्यमंत्री तक आरोपों से घिरे हुए हैं। लेकिन विपक्षी दल कांग्रेस कई गुटों में बंटी होने की वजह से ऐसा कुछ नहीं कर पाई है कि लोग उसके दस सालों के कुशासन को भूल कर भाजपा को अपदस्थ करने में कांग्रेस को विकल्प के तौर पर देखने लगें। कांग्रेस और दिग्विजय सिंह को जिन उमा भारती के नेत्रत्व में भाजपा ने अपदस्थ किया था, उनकी घर वापसी की प्रबल संभावनाओं के बीच अपना दबदबा बनाए रखने की कोशिश में शिवराज ने स्वर्णिम मप्र के नाम पर विशेष सत्र बुलाने की जो रणनीति बनाई वह उनके लिए मुसीबत ही बनती नजर आई। विशेष सत्र भाजपा का कार्यक्रम बनकर रह गया। ऐसे में जनता को यह समझ नहीं आ रहा है कि लगातार दो बार मप्र के विकास के नाम पर जनादेश देने के बाद अब भाजपा सरकार को मप्र को स्वर्णिम बनाने से आखिर रोक कौन रहा है? विशेष सत्र की जरूरत क्यों पड़ी ? कांग्रेस के सदन से दूर रहकर बाहर प्रहसन पर भी जनता जानना चाहती है कि आखिर उन्होंने 10 साल में कुछ क्यों नहीं किया था, अब आखिर किस योग्यता पर उन्हें फिर से अवसर मिलना चाहिए?

रविवार, 9 मई 2010

तुमने जो सिखाया माँ

जब भी लगती है कोई चोट
चड़ता है ताप
लगती है कसके भूख
सूख जाता है प्यास से कंठ
लगता है डर भव्तिव्य्ताओं से
लोग लगातार करते है परेशान
तो बरबस याद आता है कौन
तुम तुम तुम -- और कौन
हाँ माँ तुम
में जानता हूँ तुम नही दे सकतीं मुझे
येंसी कोई सलाह जिससे काट फेंकू में
षड्यंत्रों का जाल
तुम कहोगी सब भगवन पे छोड़ दे बेटा
जब तुमने किसी का बुरा नही किया तो
कोई तुमारा बुरा नही कर पायेगा
लेकिन मेरी भोली माँ
किसी का बुरा नही करना ही बन गया हे इस दौर में बुराई
जो दूसरों कि राह में बो रहे हैं कांटे उनको ही मिल रहे हैं फूल
तुम ही बताओ माँ
कहाँ कमी रही गई
तुमने सिखाया सच बोलना डरना मत
किसी का दिल मत दुखाना
थोड़े में संतोष रखना
यही सब करता हूँ हार जाता हूँ माँ
तुम्हारी सीख को गलत साबित करने में
लगा है जमाना
बहुत बहुत अकेला पड़ जाता हूँ माँ
कल रात फिर सपने में देखा तुम्हे
आके गले लगा लो ना माँ
...........




सतीश एलिया