मंगलवार, 30 जून 2009

क्या राज्यपाल पद उम्रदराजों के लिए ही है

बयासी वर्षीय रामेश्वर ठाकुर ने मंगलवार को भोपाल के राजभवन में मध्यप्रदेश के 19 वें राज्यपाल के रूप में शपथ ग्रहण की। श्री ठाकुर बीते साढे चार साल में तीन राज्यों के गर्वनर रह चुके हैं, अलबत्ता राज्यपाल की नियुक्तियां पांच साल के कार्यकाल के लिए होती हैं और यह अपने में अनोखा है कि श्री ठाकुर को इन पांच सालों में चार राज्यों के राज्यपाल बनने का अवसर मिला। मप्र के गर्वनर पद पर कार्यकाल पूरा करके गए डा. बलराम जाखड ने जब यह पद सम्हाला था तो वे 81 वर्ष के थे, श्री ठाकुर आए हैं तो वे 82 वर्ष के हैं। केंद्र के सत्ताधारी दल वो कोई भी हो, अपने बुजुर्ग नेताओं को राज्यपाल पद देकर उनकी उम्र के चैथेपन के सुखद जीवन यापन का बंदोबस्त इसी तरह करता है। शपथ समारोह जैसा कि होता है, पूरा तामझाम और सात मिनिट में कार्यक्रम खत्म। आज भी ऐसा ही हुआ। लेकिन श्री ठाकुर के शपथ ग्रहण के पहले, दौरान और बाद में जो चर्चाएं उस पंडाल में मौजूद गणमान्य लोगों में हो रही थीं, उसका लुब्बो लुआब ये था कि क्या राज्यपाल पद और इतने भव्य राजभवनों की आवश्यकता है? क्या कभी कोई उर्जा से भरा हुआ नौजवान भी गर्वनर बन सकेगा? एक सज्जन पूर्व राज्यपाल डा. जाखड की फिर से राज्यपाल बनने की कोशिशों का जिक्र कर रहे थे। उनका कहना था जाखड साब को कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने मिलने तक का वक्त नहीं दिया। बेचारों की बहुत इच्छा थी कि पांच साल और मप्र के राजभवन में ही रहें। वे बडे बेदिल और बेमन से यहां से गए और जाते जाते कहा भी कि मैं जा तो रहा हूं दिल यहीं छोडे जा रहा हूं। दो गणमान्य लोग चर्चा कर रहे थे कि अमेरिका में देखिए बाॅबी जिंदल और अर्नाल्ड श्वाजनेगर जैसे लोग गर्वनर बनते हैं और हमारे यहां उम्र के उस पढाव पर लोग गर्वनर बनाए जाते हैं जब उन्हें चलने फिरने में भी तकलीफ होती है। मप्र के राज्यपाल पद की शपथ लेते वक्त श्री ठाकुर की शारीरिक स्थिति भी ऐसी ही थी, उन्हें सहारा लेकर चलना पड रहा था। शपथ और गार्ड आॅफ आॅनर के बाद वे इतने थक गए कि जनसंपर्क अधिकारी ने चाय के बाद नए राज्यपाल की प्रेस से बातचीत की उम्मीद जताई थी, लेकिन यह नहीं हो सका। हालांकि पांच साल पहले जब डा. जाखड ने शपथ ली थी तो उन्होंने प्रेस से न केवल चर्चा की थी बल्कि अपने बिंदास अंदाज की झलक भी दिखाई थी, जो पूरे पांच साल बरकरार रहा।खैर जब श्री ठाकुर के शपथ ग्रहण का कार्यक्रम खत्म हुआ तो इस मौके पर आए पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा को भी दो लोग सहारा देकर ले जा रहे थे और मप्र विधानसभा की नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी को भी एक कांग्रेस कार्यकर्ता सहारा देकर वाहन तक ले गया। बुजुर्ग नेताओं के अनुभव के अपने फायदे हैं लेकिन इतने महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति के लिए पूरी तरह स्वस्थ रहना क्या जरूरी नहीं होना चाहिए।

सोमवार, 29 जून 2009

फूहडता का स्वयंवर

अंताक्षरी, सारेगामा से शुरू हुए टीवी चैनलों पर रियलिटी शोज के सिलसिले में सर्वाधिक लोकप्रियता अमिताभ बच्चन प्रस्तुत कौन बनेगा करोडपति ने हासिल की थी। लेकिन इसके बाद विदेशी रियलिटी शोज की नकल का जो दौर चला तो वो कुख्यात आइटम गर्ल राखी सावंत के तथाकथित स्वयंवर तक पहुंच गया है। संगीत और डांस के रियलिटी शोज ने भी कुछ अच्छा दिया तो कुछ नौटंकिया भी दर्शकों के सामने पेश कीं। एक कुख्यात संगीतकार ने एक गरीब प्रतिभावान नन्हीं सी गायिका का शोषण किया और मंच पर ही झगडों के ड्रामे भी देखने में आए। लेकिन आइटम गर्ल का स्वयंवर तो गजब का ड्रामा है। बीते पांच छह साल मंे राखी सावंत झगडे टंटे, प्रेमी की पिटाई करते हुए मीडिया कवरेज कराने और दलेर मेहंदी के भाई मिका के साथ किस प्रकरण इत्यादि के कारण चर्चा में बनी रही है। इतना सब होने के बाद अब अगर राखी के स्वयंवर का प्रचार ऐसे किया जा रहा है मानो वो कहीं की राजकुमारी और पहली बार ही किसी पुरूष का वरण करने जा रही हो, मजाक ही लगता है। अभिषेक के साथ उनके रिश्ते और उनका सार्वजनिक फूहड प्रदर्शन टीवी दर्शक देख ही चुके हैं। वह भी इसलिए क्योंकि न्यूज चैनलों के पास क्या और क्यों दिखाना इसका कोई नैतिक पैमाना नहीं है। हालात ये है कि निजी रेडियो चैनलों पर कई दिनों से खुद राखी सावंत अपना प्रचार कर रही है, कि उसका स्वयंवर हो रहा है, जिंदगी का महत्वपूर्ण फैसला है, जरूर देखिएगा। क्या बात है, फूहडता की हद है। इतिहास और पौराणिक गाथाओं में स्वयंवर के कई उदाहरण मिलते हैं, कन्याओं के विवाह के लिए पिताओं ने ऐसे आयोजन किए और उसमें शूरवीरता के उच्चतम पैमाने तय कर विजेता को वरण करने का अवसर होता था। भगवान राम और माता सीता का विवाह भी स्वयंवर से ही हुआ था। लेकिन राखी के स्वयंवर को क्या कहा जाए, राजीव के. मिश्रा ने अपने ब्लाॅक पर इसे नगरवधु का स्वयंवर संज्ञा दी है। हो सकता है नारीवादियों को इस पर ऐतराज हो वह भी सख्त किस्म का लेकिन मिश्राजी पूरी तरह गलत भी नहीं कहे जा सकते। जिस तरह से एनडीवी जैसे अपेक्षाक्रत अच्छे और श्रेष्ठ चैनल समूह ने इमेजिन पर स्वयंवर रचवाया तो राखी सावंत का, कोई हस्ती भी उसके लिए ढूंढी जा सकती थी, वास्तव में स्वयंवर लगता। उदाहरण देना चाहूंगा, बीते साल छत्तीसगढ के एक गांव का, जहां एक रामचरित मानस को सांगोपांग अपनाए हुए एक परिवार ने अपनी बेटी को स्वयंवर के जरिए ही विदा किया। बेटी ने भी आदर्श जीवन साथी से प्रश्नोत्तर किए। यह विवाह सीता विवाह की ही तरह गरिमा और उच्च आदर्श वाला बन गया था। चैनल भी अपने स्वयंवर को गरिमामय और आदर्शमय बना सकता था, लेकिन राखी का चयन कर उसने इस संभावना को खत्म ही किया है।

रविवार, 28 जून 2009

मंत्री का दौरा सरकारी मेल मुलाकात रिश्तेदारों से

केंद्रीय पंचायत एवं ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन इतवार को भोपाल आए, उनका यह दौरा पूरी तरह सरकारी खर्चे पर और आधिकारिक दौरा था लेकिन उनके कार्यक्रम का चार्ट देखकर लगता है कि राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड आखिर कर क्या रही है? श्री जैन के का ननिहाल भोपाल में हैं, उनके मौसाजी, भाई इत्यादि भोपाल में रहते हैं। जरा गौर करिए उनके भोपाल आगमन के दौरा कार्यक्रम पर। अपने घर झांसी से कर्नाटक एक्सप्रेस से भोपाल पहुंचकर वे अशोका गार्डन में अपने रिश्तेदार के यहां गए, वहां से जैन मंदिर गए, फिर दूसरे जैन मंदिर गए, फिर जैन विद्यालय गए, फिर ननिहाल गए, फिर मौसाजी के यहां गए , फिर भाई के यहां गए। दिन भर के कार्यक्रम में एक मात्र कार्यक्रम पारिवारिक कार्यक्रम से अलग था, वे बीएचईएल में कांग्रेस से संबद्ध संगठन इंटक के कार्यक्रम में शामिल हुए। खास बात ये है कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने तीन दिन पहले उनके भोपाल दौरे का आधिकारिक कार्यक्रम जारी किया। प्रदेश के सभी जिला पंचायत मुख्य कार्यपालन अधिकारियों और भोपाल के कलेक्टर तथा अन्य अधिकारियों को उनकी यात्रा की सूचना देते हुए ताकीद किया गया कि वे आवश्यक इंतजाम करें। इस सरकारी खर्चे पर निजी यात्रा में राहुल बाबा के कोटे से मंत्री बने प्रदीप जैन चाहते तो मप्र में केंद्र सरकार की ग्रामीण विकास योजनाओं का हाल जान सकते थे, राहुल बाबा को भी अच्छा लगता और मप्र में ग्रामीण विकास की योजनाओं की गडबडियों पर भी उनकी नजर जाती। श्री जैन की भोपाल यात्रा सरकारी खर्चे पर निजी यात्रा ही बन गई। हालांकि वे अकेले ऐसे नहीं हैं जो निजी यात्रा को सरकारी यात्रा की तरह करते हैं। हमारे यहां लोकतंत्र में इस किस्म के मजाक नए नहीं हैं, जो मंत्री बनता है, या कोई और रूतबा हासिल करता है, उसका बेजा इस्तेमाल तो करता ही है। हां वह जब विपक्ष में हो तो इन्हीं चीजों की आलोचना भी करता है। क्या राहुल इस परंपरा को बदलने के लिए कुछ करेंगे?

शनिवार, 27 जून 2009

माइकल जयकिशन नहीं रहे

पॉप संगीत और न्रत्य के बेताज बादशाह माइकल जैक्सन नहीं रहे, यह खबर पडकर धक्का लगा। डांस करने, देखने और पसंद करने वाला दुनिया का कोई भी शख्स जैक्सन का शो या उसकी सीडी एक बार देख ले तो यह असंभव है कि वह उनकी न्रत्य कला का दीवाना न बने। उनके समकालीनों से लेकर वर्तमान के जितने भी फिल्म और राॅक स्टार हैं, उनमें से शायद कोई भी ऐसा नहीं हो जिस पर माइकल का प्रभाव न हो। भारतीय फिल्मों में तो मिठुन चक्रवर्ती, प्रभुदेवा से लेकर ऋत्विक रोशन तक सबके डांस में माइकल जैक्सन की ही छवियां हैं। महिला नर्तकों में सकीरा और पुरूषों में माइकल जैक्सन का डांस देखना अदभुत अनुभव है। मैंने जब भी टीवी पर उनका शो देखा, पूरा होने तक चैनल बदलने का अभ्यस्त हाथ भी थमा रहा। ऐसा नहीं है कि मैं माइकल के गुजर जाने की वजह से उनकी इतनी तारीफ कर रहा हूं। मैंने महसूस किया है, कई कई दफा कि उनके स्टेप्स और फुर्ती निःसंदेह जादुई थे। मित्रों माइकल जैक्सन की पापुलेरिटी और विवाद दोनों ही शिखर पर रहे हैं। पचास साल की उम्र उनका जाना निश्चित ही संगीत जगत की अपूरणीय क्षति है। उन्हें मिले आठ oscar बताते हैं कि माइकल जैक्सन संगीत और न्रत्य जगत की कितनी बडी धरोहर थे। मित्रों हमारे यहां न्रत्य को आध्यात्म से जोडकर ईश्वरीय आराधना का उत्तम मार्ग माना गया है। चैतन्य महाप्रभु से लेकर मीरा बाई तक इसके उदाहरण हैं। भगवान श्रीक्रष्ण के उपासकों को उनके न्रत्य रूप का ही रसपान सबसे ज्यादा भाता है। क्रष्ण की प्रतिमाओं को आप देखेंगे तो सबमें वे न्रत्य मुद्रा में होते हैं। होठों पर बांसुरी और दोनों पैर न्रत्यमुद्रा में। रास रचैया और ता ता थैया की लीला ने क्रष्ण को पांच हजार सालों से भारतीय जनमानस के ह्रदय में बसाया हुआ है। माइकल जैक्सन की गायकी से ज्यादा उनकी न्रत्य मुद्राएं और गतियां उनके अप्रतिम विख्यात होने की वजह रहीं। न्रत्य के अदभुत प्रदर्शन से माइकल दुनिया भर में पाश्चात्य न्रत्य शैली के गुरू ही बन गए थे। हमारे यहां समूचे देश के लगभग हर शहर में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो माइकल जैक्सन के न्रत्य के वीडियो देख देखकर न केवल डांसर बन गए बल्कि न्रत्य गुरू के रूप में स्थापित हो गए। क्रष्ण की न्रत्य लीला ही उनके ईश्वरीय रूप का प्राण बिंदु है, माइकल जैक्सन का न्रत्य भी उच्च कोटि का था, इसीलिए मैंने शीर्षक में उन्हें जैक्सन के बजाय जयकिशन संबोधित किया है। न्रत्य के अदभुत अवतार माइकल जयकिशन को मेरी श्रद्धांजलि और सलाम।

खंडूरी के उत्तराखंड में तीन दिन-1

मित्रो, पांच दिन गैर हाजिर रहा, इनमें से तीन दिन मैं उत्तराखंड में था, जी नहीं मेजर जनरल रिटायर भुवन चंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री पद से हटाने की कवायद और उसके सफल होने में मेरा कोई हाथ नहीं है। मैं इन दिनों में से डेढ दिन दिल्ली में था और पूरे तीन दिन हरिद्वार और ऋषिकेश में रहा। मेरी यात्रा पूरी तरह धार्मिक थी, लेकिन बतौर पत्रकार मैंने पाया कि खंडूरी सरकार इस देवभूमि उत्तराखंड का इंतजाम नहीं कर पा रही थी, इसके पहले के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में इंतजाम कैसा रहा होगा, इसका मुझे अनुभव नहीं है। लेकिन तीन दिनों में मैंने देखा कि समूचे देश से आने वाले श्रद्धालुओं को हर तरफ अव्यवस्थाओं का सामना करना पडता है। संयोग ही है कि यही तीन दिन खंडूरी के कार्यकाल के अंतिम तीन दिन बन गए। मैं हरिद्वार से मंगलवार की अलसुबह दिल्ली पहुंचा तो खंडूरी के हटने की खबर छप चुकी थी और रमेश पोखरियाल को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय हो चुका था। खैर मेरा इरादा यहां भाजपा की राजनीति और उत्तराखंड की सरकार पर तपसरा करने का नहीं है। मैं तो बस अपनी तीन दिनी उत्तराखंड यात्रा का हाल आपको सुनाना चाहता हूं। शनिवार 20 जून को दोपहर डेढ बजे दिल्ली से हरिद्वार के लिए रवाना हुआ और सडक मार्ग से यह दूरी पांच घंटे में पूरी हो जाना चाहिए थी। एक तो मायावती के उत्तरप्रदेश में यातायात के बुरे हाल और फिर खंडूरी के उत्तराखंड के रूडकी में एक घंटे का रोड जाम, आखिरकार साढे छह पतित पावनी गंगा के हर की पौडी घाट पर पहुंच गए। गंगाजी की आरती हो रही थी, इस बहुश्रुत द्रश्य को देखने की लालसा में लगभग दौड ही लगा दी, साथ में माता पिता, पत्नी और उनकी माता थीं, बुजुर्गों ने भी आरती देखने की आस्था भरी लालसा में दौड लगाई। आरती के लिए उमडा जन सैलाव और गंगाजी का प्रवाह देखकर थकान दूर हो गई। निर्मल जलधारा में स्नान का मोह संवरण नहीं कर सका। इतना शीतल जल शरीर और आत्मा को दोनों को ही निर्मल कर गया। चंद मिनिटों में ही चंदा वसूलने वाले कार्यकर्ताओं का हुजूम पूरे घाट पर फेरी लगाने लगा। धक्का मुक्की और घाट पर सफाई के अभाव ने बदइंतजामी की झलक दिखा दी। घाट पर होटलें और लाॅजों की कतारें, जाहिर है उनका सीवेज गंगाजी में ही जाता होगा। हम नदियों को मां कहते हैं, उनकी पूजा और नित्य आरती तो करते हैं लेकिन उन्हें गटर बनाने पर कोई लगाम नहीं लगाते। यह सब देखकर मन दुखी हो गया। वाहन पार्किंग मंे भारी अव्यवस्था, अस्थाई दुकानों की रेलमपेल और खुले आम शौच और लघुशंका के नजारे देखकर बुरा लगा। खैर रात धर्मशाला नाम से चलने वाली एक लाॅज में बिताई। सुबह फिर आरती के दर्शन किए और दिन चढते ही भीड लगातार बढने के नजारे में गंदगी के कई गुना विस्तार से साबका पडा। यहां से बाजार से गुजरकर मंशादेवी के दर्शन के लिए उडन खटोले की राह पर रवाना हुए। बाजार में सडकों पर भी गंदगी और धूल का आलम। बाजारों में पीने के पानी के लिए बोतल बंद जल के अलावा कोई और उपाय नहीं, बोतल भी 12 के बजाय 15 और 20 रूपए में। रोप-वे से मंशा देवी के दर्शन के लिए पहुंचने में दो घंटे का इंतजार करना पडा। देवी के दरबार में पुजारियों का व्यवहार देखकर मन आक्रोश और ग्लानि से भर गया। वे हजारों मील से माता के दर्शन करने देश के कोने कोने से पहुंचने वाले श्रद्धालुओं ऐसे दुतकारते हैं, मानो वे मनुष्य ही नहीं हों। मैंने देखा कि 70 और 80 साल की बुजुर्ग महिलाओं तक को ये देवी के कथित पुजारी धक्के देकर हटा रहे थे। दस सेकंड भी दर्शन नहीं करने दे रहे थे। आखिर मुझे पुजारियों से झगडा करना पडा और हम लोगों ने पूरे दस मिनिट देवी के दर्शन किए। नीचे उतरते ही एक व्रक्ष पर महिलाएं मन्नत का धागा बांध रही थीं, धागा वहां मौजूद पुजारी 20-20 रूपए में बेच रहे थे। दीवारों पर जगह-जगह ट्रस्ट ने लिख रखा था, किसी को पैसे, रूपए न दें। यह भी लिख रखा था जेबकतरों से सावधान, महिलाएं भी जेबकतरी हो सकती हैं। पुजारी खुले आए 10 पैसे का धागा 20 रूपए में और दुकानदार 12 रूपए की पानी बोतल 20 रूपए में बेच रहे थे। मंदिर की उंचाई से रोप-वे में बैठकर लौटने पर गंगा की धाराओं और पहाडियों का सुंदर विहंगम द्रश्य दूर से भला लगा, इस सीन ने रोमांचित किया लेकिन ठीक नीचे नजर दौडाई तो पूरी पहाडी पर मंदिर के चारों तरफ पाॅलीथिन का कचरा बिखरा नजर आया। हालांकि सरकार ने जगह जगह पाॅलीथिन मुक्ति के नारे लिखवाकर मुक्ति पा ली है। यही आलम पूरे हरिद्वार शहर के बाजारों और गलियारों का है। ऐसा लगा मानो सफाई व्यवस्था नाम की कोई चीज यहां शायद नहीं है। इतवार की शाम को हरिद्वार से ऋषिकेश प्रयाण किया। सडक खाली मिली तो अच्छा लगा। कुछ ही किलोमीटर चलने के बाद पहाडों का खूबसूरत नजारा मिला जो ऋषिकेष तक जारी रहा, आंखों को सुकून मिला। लेकिन भारी यातायात और तंग सडकों ने चक्काजाम में फंसाया तो एक घंटे में वाहन छोड पैदल चलने पर ही मुक्ति मिली। यहां भी गंगा के घाट पर दो हजार रूपए प्रतिदिन पर कमरे देने वाले आधुनिक होटलों की श्रंखला बन गई है, जाहिर है सीवेज गंगाजी को मैला करता होगा। लक्ष्मण झूले से गुजरते हुए स्पीड और राफटिंग वोट को देखना रोमांचक लगता है। उस पार तेरह तेरह मंजिल के दो मंदिर कांप्लेक्स हैं। मंदिरों में सुंदर मूर्तियां के दर्शन और बालकनियों से गंगा के दर्शन सुखद लगते हैं। गंगा पार करने के लिए दो किलोमीटर आगे से राम झूला है, नाव से भी उस पार जा सकते हैं। नावें शाम सात बजे बंद हो जाती हैं। राम झूला के पहले प्रसिद्ध चोटीवाला का भोजनालय है, जहां एक व्यक्ति को बुत बनाकर बैठा दिया गया है जो लगातार घंटी बजाता रहता है। भोजन इस करीब साठ साल पुराने होटल की ख्याति के अनुरूप ही सुस्वादु मिला। राम पुल से गंगा पार की, यह राम झूला लक्ष्मण झूला से लंबा है, गंगाजी का पाट दो किलोमीटर दूर आकर और विशाल हो गया है। पुल से स्कूटर, मोटर सायकल, साइकिल, रिक्शा और ठेले आदमियों को ठेलते हुए आगे बढते रहते हैं। लक्ष्मण झूला और राम झूला दोनों में ही कोई स्तंभ नहीं हैं, वे लोहे मजबूत तारों पर टंगे हैं और झूले की तरह हिलते हैं, इनकी मजबूती गजब की है और आश्चर्य से भर देती है। पुल पारकर सारथी को तलाशने में आधा घंटे की मशक्कत हुई क्योंकि दो बार पूछताछ की वह भी उत्तराखंड के पुलिस जवान से। जानकारी गलत दी गई और भटकना पडा। रात्रि विश्राम के लिए गढवाल पर्यटन विकास के गेस्ट हाउस में जगह मिली।

शनिवार, 20 जून 2009

उप्र पुलिस ने डाकू मारा मप्र सरकार ने इनाम बढाया

उप्र पुलिस ने विंध्य क्षेत्र के दुर्दांत डकैत घनश्याम पटेल को मार गिराया। हालांकि उसे मारने मंे पुलिस के जवानों को शहादत देना पडी। एक डकैत को मारने के लिए पुलिस को जो मशक्कत करना पडी उससे जाहिर है कि डाकू पुलिस पर क्यों भारी पडते हैं। विंध्य क्षेत्र में भले ही वह मप्र का इलाका हो या उप्र का डाकुओं को राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा है, वही उनकी शक्ति का स्त्रोत भी है। खैर हम यहां डाकुओं को नेताओं के संरक्षण की बात केवल संदर्भ के बतौर कर रहे हैं, इस पर पूरी बात पिफर कभी सही। अभी तो हम बात कर रहे हैं घनश्याम पटेल की मौत होने के बाद मप्र पुलिस को भी होश आया। उसने सतना जिले के बिछियन गांव में तीन महीने पहले हुए नरसंहार के सूत्रधार सुंदर पटेल पर शुक्रवार को इनाम 25 हजार रूपए से बढाकर एक लाख रूपए कर दिया। तीन महीने पहले इस डाकू पर महज 10 हजार रूपए इनाम था। नरसंहार के बाद इनाम ढाई गुना हुआ और अब उप्र पुलिस ने जब घनश्याम का सफाया कर दिया तो मप्र सरकार ने सुंदर पटेल का रूतबा बढाकर इनाम सीधा चार गुना और बढा दिया। सुंदर पटेल न केवल बिछियन नरसंहार के पीछे है बल्कि वह विंध्य इलाके में आतंक का पर्याय बन रहा है। काबिल गौर बात यह है कि सुंदर पटेल मीडिया को उपलब्ध है, लेकिन पुलिस उसे तलाश नहीं पा रही है। सरकार पुलिस की बात मानकर इनाम बढाने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रही है। सुंदर पटेल कई दफा अपने मोबाइल नंबर से मीडिया के लोगों से लंबी लंबी बातें कर चुका है। क्या मोबाइल के जरिए उसकी लोकेशन पता नहीं की जा सकती! आखिर निर्भय गुर्जर को भी तो मोबाइल प्रेम के कारण ही मारा गया था। लेकिन यह कारनामा भी उप्र पुलिस ने किया था। मप्र सरकार के मुखिया शिवराज ंिसंह चैहान अपने पांच साल की उपलब्धियों में डकैतों के सफाये को भी गिनाते हैं, लेकिन सुंदर पटेल न केवल जिंदा है बल्कि सरकार को उस पर ईनाम बढाना पड रहा है। मप्र में तीन दिन पहले राजधानी भोपाल में हुए गैंग रैप की वारदात के बाद शुक्रवार को मुख्यमंत्री ने पुलिस महानिदेशक तथा अन्य अफसरों को बुलाकर डांट लगाई है। देखना ये है कि डांट का कितना असर होता है। उम्मीद की जाना चाहिए कि मप्र पुलिस भी उप्र पुलिस की ही तरह सख्ती दिखाकर डकैतों का सफाया कर डालेगी।

शुक्रवार, 19 जून 2009

उदारवाद की राह पर जाने की तैयारी में संघ

स्वयंसेवक संघ अब अपने उग्र तेवरों वाले संगठनों विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी मातृ वाहिनी को उदारवाद का पाठ पढ़ा रहा है। बात बात पर हिंसात्मक प्रदर्शनों के जरिए अपनी पहचान बनाने वाले इन संगठनों को अब नियमों के दायरे में रखकर शांतिपूर्ण प्रदर्शनों की सीख दी जा रही है। इसके लिए बकायदा प्रशिक्षण शिविर लगाए जा रहे हैं। शुरूआत भोपाल से हुई है, ऐसे ही दिल्ली और जम्मू में हो रहे हैं। भोपाल में शिविर बिना किसी प्रचार के शुरू हुआ और पंद्रह दिन बाद आज इसका समापन विहिप के उग्र नेता प्रवीण भाई तोगडिय़ा ने किया। इस ट्रेनिंग कैंप में गुजरात, महाराष्टï्र मप्र, छत्तीसगढ़ और गोवा के पौने दो सौ चुनींदा कार्यकर्ताओं को शांति का पाठ पढ़ाया गया। संघ ने उग्र हिंदूत्व से उदार हिंदूत्व की राह क्यों अख्तियार करना चाही है? यह सवाल इन शिविरों की श्रृंखला से उठना स्वाभाविक है। इसकी एक वजह तो संघ पुत्री भाजपा की लोकसभा चुनाव में करारी हार और इससे पहले उसके हाथ से राजस्थान की सत्ता फिसलना है। दूसरा कारण भाजपा शासित राज्यों मप्र, छत्तीसगढ़ और गुजरात में सरकार और संघ के आनुषांगिक संगठनों के सामने आ रही दिक्कतें हैं। संघ के यह आत्मज और आत्मजा संगठन अपनी सहोदरा भाजपा की सरकारों को मुसीबत में तो डालते ही हैं, चुनावों में उसकी हार का कारण भी बन जाते हैं। ऐसे में बहुत सोच विचार कर ही संघ ने अपने उग्र संगठनों से नियमों के दायरे में विरोध की रणनीति अपनाने को कहा है। खासकर भाजपा शासित राज्यों में। संगठनों को कल्याणकारी कार्यक्रमों में ज्यादा ध्यान लगाने, गौवध और धर्मांतरण जैसे संवेदनशील मामलों में भी कानून के दायरे में रहकर विरोध करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। शिविरों में ट्रेंड किए जा रहे कार्यकर्ता और पदाधिकारियों को अपने अपने क्षेत्रों में यह पाठ आगे प्रसारित करने को कहा जा रहा है। संघ उदारवादी चेहरा अपनाने की तरफ अग्रसर है, अगर ऐसा होता है तो इसके दो फलितार्थ हो सकते हैं। पहला तो यह कि उससे वे लोग भी जुड़ जाएंगे जो अभी तक संघ की उग्र छवि के कारण सैद्धांतिक रूप से कई मुद्दों पर सहमत होते हुए भी कन्नी काटते थे। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि उग्रता से छिटकने पर संघ के आनुषांगिक संगठनों की ताकत कमजोर भी हो सकती है। लेकिन दूरगामी परिणामों और राष्टï्रहित और भाजपा हित के लिहाज से देखा जाए तो उदारवादी छवि ही अब संघ के पास सही रास्ता है। क्योंकि संघ पुत्री भाजपा भी सत्ता में उदारवादी छवि वाले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में आई थी। उग्र हिंदुत्व के पैरोकार माने जाने वाले आडवाणी को जनता ने तो एक तरह से नकार ही दिया है, पार्टी में भी उनके खिलाफ अभियान चला हुआ है। अब ऐसा लगता है कि संघ आत्मजा भाजपा में उन नेताओं की वापसी की मुहिम चलेगी, जिन्हें गुट विशेष ने निकाल बाहर किया था। इनमें गोविंदाचार्य, उमा भारती जैसे नेता भी शामिल हैं। देखना ये है कि संघ का उग्रवाद से उदारवाद की तरफ यह पथ संचलन उसके और देश के कितने काम आता है।

गुरुवार, 18 जून 2009

इस बात पर तो बोलना पडेगा जयho

congressअध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी में राजे रजवाडों के वारिसों को महाराज, राजा साब, श्रीमंत इत्यादि संबोधनों पर बैन लगाकर ऐसा काम किया है कि उनके इस निर्णय पर बोलना ही पडेगा जय हो। दरअसल लोकतंत्र के 62 बरस बाद भी भारतीय राजनीति और सरकारों में सामंती तत्वों का दबदबा बरकरार है। यह जितनी मात्रा में बरकरार है, समझिए कि हमारे लोकतंत्र में उतनी ही मात्रा में कमजोरी बरकरार है। सोनिया के इस फैसले पर अमल की ताकीद सबसे पहले राजस्थान सरकार ने की है, जहां नवंबर से पहले महारानी ही मुख्यमंत्री थीं। जी हां, वसुंधरा राजे को भाजपा में मुख्यमंत्री के बजाय महारानी ही कहना ज्यादा पसंद किया जाता है, यहां तक कि पार्टी में उनके विरोधी भी इस मुददे पर विरोध नहीं करते थे। राजे रजवाडों के राजस्थान में इन दिनों माली जाति के गहलोत जी मुख्यमंत्री हैं। यही तो लोकतंत्र की शान है कि जनता के बीच का किसी भी वर्ग का व्यक्ति मुख्यमंत्री हो सकता है। सोनिया गांधी ने पार्टी में इन संबोधन पर पाबंदी लगाकर वाकई स्तुत्य काम किया है। लोकसभा चुनाव के पहले और अब भी मीडिया का एक वर्ग सोनिया पुत्र राहुल को भी युवराज संबोधन से नवाजने लगा था। हालांकि सोनिया ने और खुद राहुल ने भी इस पर अप्रसन्नता ही जताई। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही प्रमुख दलों में पूर्व राज परिवारों के वारिसों की भरमार है, और दोनांें ही दलों में उन्हें राजा साब, महाराज, महाराज कुमार, इत्यादि सामंतकालीन संबोधित करने वालों की भरमार है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में सोनिया गांधी के करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह को उनके घर राघौगढ से लेकर उनके पूर्व लोकसभा क्षेत्र राजगढ में हर कांग्रेसी राजा साब के नाम से ही संबोधित करता है। उनके छोटे भाई पहले कांग्रेस और फिर भाजपा में सांसद रहे लेकिन उनको छोटे राजा साब संबोधन नहीं बदला। दिग्विजय को तो कुछ अखबार वालों और कुछ पिछलग्गू नेताओं कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री बनने के बाद दिग्गी राजा संबोधन दे डाला जो अब भी बदस्तूर जारी है। पूर्व ग्वालियर रियासत के वारिस माधवराव ंिसंधिया को कांग्रेस में उनके समर्थक गुटों ने उनके जीवन पर्यंत और निधन के बाद महाराज संबोधन बरकरार रखा है। उनके सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया भी अब कांग्रेस के उनके गुट के लोगों के लिए महाराज हैं। इतना ही नहीं उनका तो बकायदा राज्याभिषेक भी हुआ था। भाजपा में विजयाराजे सिंधिया राजामाता ही रहीं। हाल ही में मप्र की शिवराज सरकार ने उनके नाम पर ग्वालियर में राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विवि खोला है। उनकी पुत्री जो अभी ग्वालियर की सांसद हैं, जब प्रदेश में खेल और पर्यटन मंत्री थीं, तो राज्य सरकार ने बकायदा गजट नोटिफिकेशन जारी किया था कि श्रीमती यशोधराराजे सिंधिया को श्रीमंत यशोधराराजे सिंधिया संबोधित किया जाए। शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में मंत्री रहे विजय शाह, कुंवर विजय शाह लिखते हैं। वर्तमान पर्यटन मंत्री तुकोजीराव पवार युवराज तुकोजी राव पवार है। वे इसी नाम से चुनाव लडते हैं।मध्यप्रदेश में कई पूर्व और वर्तमान विधायक हैं जो पूर्व रजवाडों और रियासतों से संबंधित हैं, वे किसी भी दल में रहें, उनके नाम के साथ राजा जरूर बना रहता है। मसलन पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह चैहान के खास उल खास रहे गोपाल सिंह चैहान डग्गी राजा कहलाते हैं। इसी तरह बुंदेलखंड के कई भाजपा, कांग्रेेस और सपा नेता खुद को राजा कहलवाने और लिखने में गर्व महसूस करते हैं। इनमें अशोक वीर विक्रम सिंह भैया राजा, मानवेंद्र सिंह भंवर राजा, विक्रम सिंह नातीराजा, शंकर प्रताप सिंह बुंदेला मुन्ना राजा, यादवेंद्र सिंह जग्गू राजा, घनश्याम सिंह महाराज कुमार हैं। यह फेहरिश्त काफी लंबी है।मध्यप्रदेश में जलसे जुलूसों में भाजपा और कांग्रेस दोनों की दलों के कार्यकर्ता इन नेताओं को गैर लोकतांत्रिक संबोधनों से नवाजने वाले नारे जमकर लगाते हैं। कांग्रेस ने तो अपने दल में इन पर पाबंदी लगाई है और राजस्थान सरकार ने तो बकायदा नोटिफिकेशन जारी कर दिया है। सोनिया की इस लोकतांत्रिक मंशा को पूरे देश में लागू करने के लिए कंेद्र सरकार कानून पारित करे तो सही मायने में लोकतंत्र के लिए शुभ होगा। उम्मीद की जाना चाहिए कि ऐसा होगा। ऐसा हुआ तो एक बार फिर कांगेे्रस के लोकसभा चुनाव के प्रचार नारे जय हो में सुर से सुर मिलाने को दिल करेगा। जय हो।

मंगलवार, 16 जून 2009

विरोध करने के लिए विरोध की मानसिकता

हमारे यहां चर्चा, संगोष्ठïी, सेंमिनार बहुत होते हैं, देश में बातूनी लोगों की भरमार है, खासकर जब हमारी जबावदेही कुछ न हो लेकिन हम दूसरों की जवाबदेही पर बहस करने के लिए स्वतंत्र हों। लेकिन संगोष्ठिïयों में भी तय विषय से ज्यादा बात उन विषयों पर होती है, जो न तो एजेंडे में होते हैं और न ही जिन पर बात करने का उस वक्त कोई मतलब होता है। इसी इतवार की बात है भोपाल के स्वराज संचालनालय में दो संस्थाओं ने मिलकर संगोष्ठïी की। विषय था गुड गवर्नेंस यानी सुशासन। यह विषय शायद इसलिए चुना गया था कि कुछ ही रोज पहले केंद्र सरकार के कार्मिक मंत्रालय और मप्र सरकार के सुशासन स्कूल यानी स्कूल ऑफ गुड गवर्नेंस ने भी इसी विषय पर सेमिनार किया था। जाहिर है बाद की संगोष्ठïी को पहले हुए सेमिनार से प्रेरणा मिली होगी। संगोष्ठïी में तीन दर्जन लोग मौजूद थे, जिनमें 90 प्रतिशत सेवानिवृत्त प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी थे। सबने अपने कार्यकाल के दौरान के अनुभव सुनाए। कुछ ने अपने साथ हुए कथित अन्याय की चर्चा करते हुए उनकी आवाज न उठाने के मीडिया पर बिके होने का आरोप मढने की कोशिश की। जिसका वहां मौजूद मीडिया के इक्का दुक्का लोगों ने अपनी अपनी तरह से विरोध किया। लुब्बे लुआब ये कि गुड गर्वनेंस के लिए क्या हो रहा है, होना चाहिए इस पर चर्चा के बजाय अपने संस्मरण सुनाने और सरकार की निंदा करने में तीन घंटे लग गए। इस गोष्ठïी में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े एक सज्जन ने तो गुड गवर्नेंस के बजाय सरकारी योजनाओं का शिलान्यास, भूमिपूजन होने और सरकारी दफतरों में धार्मिक प्रतीक लगाए जाने का विरोध करना शुरू कर दिया। चूंकि दो मे से एक आयोजक भी इसी पार्टी से जुडे हुए हैं, सो वे भी इसी सुर में बोलने लगे। उन्होंने गरीबों की बेटियों के कल्याण की मप्र सरकार की पॉपुलर योजना लाडली लक्ष्मी और बारिश का पानी सहेजने की योजना जलाभिषेक के नाम की आलोचना करना शुरू कर दिया। उनका कहना था कि लक्ष्मी धार्मिक नाम है और अभिषेक तो शिवजी का होता है, धर्म निरपेक्ष राज्य में सरकार को ऐसे नाम नहीं रखना चाहिए, भूमि पूजन और शिलान्यास तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए। मंत्रियों को धार्मिक प्रतीकों से दूर रहना चाहिए। प्रदेश स्तर के एक व्यापार संघ के एक पदाधिकारी बेचारे गुड गवर्नेस पर कुछ सीख मिलने की गरज से यहां पहुंचे थे, इस बौद्धिक कबड्डïी से दुखी हो गए। उन्होंने कहा धार्मिक प्रतीकों का विरोध तो आज की गोष्ठïी का विषय नहीं था, कृपया विषय पर बात करें, धार्मिकप्रतीकों की निंदा करना ही है तो किसी और दिन इसी मुददे पर गोष्ठïी बुला लें। लेकिन आयोजक भी अपनी धर्म निरपेक्षता साबित करने पर अड़ गए। मैं इस गोष्ठïी को देखने सुनने गया था, तय करके गया कि अपन इसमें कुछ बोलेंगे नहीं। लेकिन धैर्य भी आखिर कब तक रखा जाए भला? सो मैंने मूल सवाल उठाने वाले और धार्मिक प्रतीकों का विरोध कर रहे सज्जन से मैंने सवाल किया कि- आपका धार्मिक प्रतीकों से क्या मतलब है? क्या डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं इसलिए पगड़ी पहनना छोड़दें? क्या आपके कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत सिखों के धार्मिक प्रतीक नहीं अपनाए हुए थे? इन सवालों का उनके पास कोई जवाब नहीं था। गोष्ठïी में विषय से भटकने पर आपत्ति करने वाले सज्जन से मैंने कहा आदरणीय गुड गवर्नेंस और धर्म निरपेक्षता का आयोजकों के हिसाब से यह मतलब है कि प्रधानमंत्री बनने के बात कोई मनमोहन नाम नहीं रख सकता, यदि आपका नाम राधेश्याम या सीताराम है तो कलेक्टर बनने के बाद आपका नाम यह नहीं रह सकता। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो गुड गवर्नेंस भी नहीं आ सकती। शोर इतना हो रहा था कि मेरी आवाज भी इसमें शामिल होकर रह गई। दोपहर के करीब दो बज रहे थे और आयोजक पहले ही कह चुके थे कि उन्होंने लंच का इंतजाम नहीं किया है, ज्यादा लोग पैंसठ से अस्सी साल उम्र वाले थे, फ्रूटी के सहारे कब तक बैठते, गोष्ठïी का निष्कर्ष करने की बात शुरू होने तक आधा दर्जन लोग भी नहीं बचे। मुख्य आयोजक निष्कर्ष लिखने लगे, तब तक हॉल खाली हो चुका था। मुझे लगा विरोध करने के लिए विरोध करने से ही कुछ लोगों की दुकान चलती रहती है, बाकी इसमें मुहरे बनते हैं, आपका क्या सोचना है, बताइएगा जरूर।

सोमवार, 15 जून 2009

लौट के क्रिकेट के बुद्धू घर को आए

टवेंटी टवेंटी के चैंपियन क्वार्टर फाइनल से पहले ही ढेर हो गए, और वे बैरंग घर लौटने की तैयारी कर रहे होंगे। वेस्ट इंडीज के बाद इग्लैंड के हाथों पिटकर धोनी के धुरंधर वापस आ रहे हैं। असल में भारतीय टीम की हार पिच से ज्यादा गलतियों की वजह से हुई। रवींद्र जडेजा टीम के लिए वाटरलू साबित हुए। धोनी को जब यह सामने दिख रहा था कि लक्ष्य को पिच और कठिन बना रही है तो नए नवेले जडेजा के बजाय उन्हें युवराज को पहले ही भेज देना चाहिए था, उन्होंने ऐसा नहीं किया और फिर सुस्ती से खेल रहे जडेजा की वजह से रनों का पीछा करना कठिन हो रहा था, ऐसे में युवराज का स्टंप होना तो मानो यह तय कर गया कि जीतना मुश्किल है। युसुफ पठान की तारीफ करना होगी, उन्होंने मैच में आखिर तक एक उम्मीद बनाए रखी, धोनी भी अपने बल्ले की चमक नहीं दिखा पाए ताकि हार को जीत में बदला जा सकता। पिच और लक दोनों इंग्लैंड के साथ थे, यह मैच के आखिरी दो ओवर्स में सामने आ गया। टवेंटी टवेंटी के चैंपियन टूर्नामेंट से बाहर हो गए हैं, ऐसे में अब टूर्नामेंट बैरंग हो गया, कम से कम भारतीय दर्शकों के लिए तो ऐसा ही है, क्योंकि क्रिकेट को मजहब की तरह मानने वाले हिंदुस्तानी दर्शकों के लिए इतवार की रात मोहर्रम से कम नहीं रही। इस मैच में जीतने वाली इंग्लैंड वाकई अपने शानदार खेल के लिए बधाई की पात्र है। अब देखना ये है कि भारत को घर भेजने वाली कलिंगवुड की टीम फाइनल में पहुंच पाती है या नहीं और पहुंचती है तो कप उठा पाती है या नहीं।

रविवार, 14 जून 2009

देशज शब्द और उनकी द्रश्यात्मकताः जैसे लौलइयां और पीरे बादरों

मित्रों पिछले सप्ताह हमने मेहमान और बतर जैसे ग्राम्य शब्दों की बात की थी। इस रविवार भी हम गांव ही चलेंगे, हमारे पैत्रक गांव की यात्रा। जब हम गांव जाते थे तो बाज दफा ऐसे शब्द सुनने को मिलते थे बोलचाल की भाषा में जो हमने कस्बे और शहर में नहीं सुने थे। जिज्ञासावश उन शब्दों का मतलब पूछते और अर्थ पता लगता तो मन जिस सुखद आश्चर्य से अब से तीस बरस पहले भर जाता है, उसमें अब भी कोई कमी नहीं आई है। यह जरूर है कि अब गांवों की बोली में से भी कई शब्द गुम हो रहे हैं, शहरों से संपर्क और संपर्क के साधन लगातार बढ रहे हैं, ऐसे में कई शब्द भी अतीत हो रहे हैं। तो आज मैं जिन दो शब्दों की बात कर रहा हूं वे समय को प्रदर्शित करने वाले हैं। गांव में जब कोई सुबह बाहर जा रहा होता और उससे पूछा जाता कि वह संझा को कब तक लौट आएगा तो उत्तर मिलता था- लौलइयां लगे तक लौट आएंगे। मैंने अपनी ताई से पूछा- ये लौ लइयां क्या होता है! उन्होंने मुझे गोद में बिठाया और समझाया कि शाम को जब अंधेरा घिर आता है तो हम घर में दीया जलाते हैं, तो दीये में जब लौ लगती है, उस बेरां यानी समय को कहते हैं लौलइयां का बखत। न तो ये संझा है और न ही रात ही कह सकते हैं। मुझे यह शब्द बडा ही प्यारा लगा था, तब भी और अब भी लगता है, लेकिन अब यह शब्द हमारे गांव में भी बहुत की कम लोग बोलते होंगे। दूसरा शब्द पीरे बादरों है। यह भी अलसुबह या तडके जैसा शब्द है, जब सूर्य के आने से काफी देर पहले उसके आने का संदेश आसमान पर बिखर जाता है, आकाश पूर्व से लेकर पश्चिम तक पीला सिंदूरी हो उठता है, इस वक्त को गांव में कहते थे, पीरे बादरों उठकर खेत पर चला गया था। मुझे समय को दर्शाने वाले इन शब्दों का बोली में प्रयोग इतना प्यारा लगा था कि आज तीस बरस बाद भी उतना ही सुखद लगता है, जैसे मुझे अपनी ताई की गोद में बैठकर लगता था। मेरी बडी ताई 23 बरस पहले नहीं रही थीं, लेकिन इन शब्दों और ऐसे ही और कई ग्राम्य शब्दों में उनका प्यार बसा है, मेरे मन में। अगले इतवार को फिर ऐसे ही गांव की माटी और बुजुर्गों के प्यार से लबरेज शब्दों का जिक्र करूंगा, तब तक के लिए जयरामजी की।

शनिवार, 13 जून 2009

संसदस्य एकस्मिन दिवसे

मित्रों शीर्षक देखकर चैंकिए मत मैं संस्कृत कोई आख्यान आपको नहीं सुना रहा हूं, मैं तो मात्र भाषा हिंदी में ही आपसे रूबरू हूं, दरअसल यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसा मुंबईया सिनेमा में जिसे अब हालीबुड की नकल में बालीवुड कहा जाने लगा, हिंदी फिल्मों के नाम अंग्रेजी में होते हैं। लेकिन मैं चूंकि पिछडी हुई सोच का आदमी हूं सो बात हिंदी में कर रहा हूं लेकिन शीर्षक पांच हजार साल पुरानी भाषा संस्कृत में रख लिया है। यह शीर्षक भी मैंने महाकवि कालिदास से उधार लिया है, बिना कोई रायल्टी दिए। मैं रायल्टी देना भी चाहूं तो दूं किसे? कालिदास के बारे में कहा जाता है कि उनकी ज्ञान और भावेंद्रियां जाग्रत होने से पहले वे इतने मूढ थे कि जिस डाल पर बैठे थे, उसे ही काट रहे थे। लेकिन जब उनका कवित्व जागा तो वे संस्कृत सबसे उदभट कवि बन गए। तब भी जब वे थे और अब भी जब ढाई हजार साल उनके होने के वक्त को बीत चुके हैं। लेकिन हमारे देश में जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काटने वाले सैकडों नहीं लाखों की तादाद में हैं, हालांकि उनमें से कोई कालिदास नहीं बन रहा है। पैसे की चकाचैंध में न तो उन्हें और न ही राह दिखा सकने वालों को यह समझ आ रहा है कि कोई तो उन्हंे बताए कि भाई आप जिस डाल पर बैठे हो उसी को काटोगे तो खुद भी तो बर्बाद हो जाओगे। खैर आज शनिवार है और मैं वादे के मुताबिक यह रचना लेकर आपके सामने हाजिर हूं, मुलाहिजा फरमाइए। तो संसदस्य एकस्मिन दिवसे शीर्षक महाकवि कालिदास से साभार है। लेकिन उनके आषाढस्य एकस्मिन दिवसे जैसी प्रणय था इसमें नहीं है, क्योंकि इस मामले में अपन शून्य ही हैं, आज की प्रणयी बैंक बैलेंस देखती है और अपने पास न कभी था, न है और न होने की कोई आशंका ही है। खैर मैं तो आपको एक स्वप्न की गाथा सुनाना चाहता हूं, वह सुस्वप्न है या दुःस्वप्न यह आपके उपर छोडता हूं। दरअसल मुझे कल रात सपने में संसद दिखी, कैसी थी, ज्यों की त्यों पेश है। आप चाहें तो मेरे शीर्षक को संसदस्य एकस्मिन रात्रौ पढ सकते हैं।
पहलासीनघोषणा- माननीय सदस्यगण, माननीय अध्यक्ष महोदय।

अध्यक्ष के आते ही सभी उठकर खडे हो जाते हैं, बडा ही कोलाहल है, जो शून्यकाल को भी मात करता प्रतीत हो रहा है।

कई महिला सदस्य एक साथ- यह सरासर अन्याय है, क्या इस पवित्र सदन का आरंभ गलत उदघोषणा से होगा। हम भी यहां हैं और आसंदी पर भी महिला हैं। वही सदियों पुरानी पुरूषवादी परंपरा चल रही है। माननीय सदस्यगण और माननीय अध्यक्ष महोदय कहा गया। जबकि माननीय सदस्या देवियों और सदस्यगण, माननीया अध्यक्ष महोदया कहा जाना चाहिए था।

अध्यक्ष महोदया मुस्कराते हुए- देखिए, महिला बिल पेश होने के बाद आपसे मुखातिब होने का यह पहला ही मौका है, बिल पास हो जाएगा तो सदन धीरे धीरे आपके मुताबिक परंपराएं भी सीख लेगा। कृपया शांत हो जाइए।जद-यूआई-अध्यक्ष महोदया मैं। आपके माध्यम से कहना चाहता हूं कि यह जो महिला बिल पेश हुआ है, यह अधूरा है। इसमें आरक्षण के अंदर आरक्षण तो है ही नहीं। आखिर कब तक मजलूमों और अकलीयतों को पार्लियामेंट में आने से रोका जाएगा। हम यह बिल पास नहीं होने देंगे। अगर ऐसा हुआ तो हम....। शोर शराबे में कुछ सुना नहीं जा सका।
कांग्रेसी- आप लोग महिलाओं को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं, इसलिए ऐसे अडंगे लगाते हैं। हमारी यहां तो सोनियाजी ही हाईकमान हैं तो पहले से ही महिलाओं की सत्ता चल रही है, इसके पहले इंदिरा जी सत्ता में थीं।
भाजपाई- इसलिए हम कहते हैं सरकार कठपुतली है, मनमोहन जी कमजोर प्रधानमंत्री हैं। असली सत्ता तो सोनियाजी हैं। फिर भी हम बिना अगर मगर के इस बिल को पास करवाने के लिए तैयार हैं।
कांग्रेसी- हमारे यहां सोनियाजी ही सत्ता हैं, इसमें किसी को कोई शक है क्या? आपके यहां महिलाओं की क्या स्थिति है, उमा भारती से पूछे ?
भाजपाई- देखिए आपके यहां भी जयंती नटराजन के साथ आपने क्या किया था, जब उन्होंने कर्नाटक में टिकिट बिकने की बात कह दी थी, आप कोई दूध के धुले नहीं हैं।
सपाई- आप लोग विषय से भटकाने की बात मत करिए, आरक्षण के अंदर आरक्षण की मांग का समर्थन तो उमा भारती भी कर रही थीं, जब वे भाजपा में थी, इसी वजह से आपने बहाना बनाकर उन्हें पार्टी से निकाल दिया, आपकी पार्टी पिछडा विरोधी है। देखिए न कल्याण सिंह जैसे पिछडे भाजपाई को हमने साथ लिया है। भाजपा तो है ही दो तरह की बात करने वाली पार्टी, इसीलिए तो सरकार नहीं बना पाए आप लोग।

भाजपाई- तो आपने चुनाव में कौन सा तीर मार लिया, कल्याण से आपका क्या खाक कल्याण हुआ, अब आप न केंद्र में न सत्ता पक्ष में हैं और न विपक्ष में त्रिशंकु हो गए त्रिशंकु।
स्पा हम अब भी यूपीए में हैं।
भाजपाई- जरा कांग्रेसियों से तो पूछ लो, आपका पासवान जी और लालू जी का साथ उनको चाहिए ही नहीं। जबरन ही आप खुद को यूपीए में बताते फिर रहे हो।
अध्यक्ष महोदया- अशांत हो जाइए, महिला बिल पर बात करिए। बिल के अलावा जो भी बात की जा रही है उसे रिकार्ड में नहीं लिया जाएगा।
भाजपाई- महिलाओं के बारे में इन सपाईयों के विचार अच्छे नहीं है, इमराना मामले में मुलायम सिंह यादव ने कटटरपंथियों की तरफदारी की थी।
सपाई- जबाबी शोर के साथ.....महिलाओं की इतनी ही तरफदारी है तो उमा भारती को पार्टी मंे वापस लाकर फिर मुख्यमंत्री क्यों नहीं बना देते।
शोर बढता गया और अध्यक्ष ने सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी।
दूसरा सीसदन फिर समवेत हुआ
सपाई- माननीय अध्यक्ष महोदय भाजपा साम्प्रदायिकता के नाम पर वोट मांगती है, महिलाओं के मामले मंे इनका रवैया ठीक नहीं है। यह पार्टी दोहरी मानसिकता वाली है, एक बार इनकी मान्यता दोहरी सदस्यता के चलते खत्म भी हो चुकी है।
भाजपाई- अध्यक्ष महोदया, यह जनता का अपमान है, हमें जिस जनता ने वोट दिया है साम्प्रदायिक कहकर उसका अपमान किया जाता है।
कांग्रेसी- साम्प्रदायिक तो हैं ही आप लोग, मदनलाल खुराना को आपने इसीलिए पार्टी से बाहर कर दिया था कि वे गुजरात के दंगों के लिए वहां की सरकार को दोषी मान रहे थे।
भाजपाई- साम्प्रदायिक तो आप लोग हैं, 84 के दंगों के आरोपियों को कई कई बार सांसद और केंद्र में मंत्री बनाया, अबकी बार ऐन टाइम पर चुनावी नफा देखकर टाइटलर और सज्जन कुमार के टिकिट काटना पडे।
कांग्रेसी- हमारे पीएम 84 के लिए माफी बहुत पहले ही मांग चुके हैं। टिकिट तो हमने प्रत्याशियों की मर्जी से ही काटे।
भाजपाई- प्रत्याशियों की मर्जी से या सिख पत्रकार के जूते से?
सदन फिर शोर शराबे में डूब गया, नौबत हाथापाई की आ गई, अध्यक्ष ने सदन की कार्यवाही फिर स्थगित कर दी

तीसरा सीन

कार्यवाही फिर शुरू हुई, नजारा वही हंगामे भरा।
अध्यक्ष महोदया- देखिए महिला बिल पेश हो चुका है, उस पर चर्चा होना है।
भाजपाई- अध्यक्ष महोदया, कांग्रेेस को माफी मांगना होगी हमें साम्प्रदायिक कहने के लिए।
कांग्रेसी-यह भाजपा के लोग सदन मंे सिर्फ हंगामा करते हैं, जहां तक महिला बिल की बात है तो पांच साल पहले सोनियाजी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध कर यह साबित कर चुके हैं कि भाजपा महिला विरोधी है।
भाजपाई- और आप राष्ट्रवादी कांग्रेस पाटी्र के सहयोग से पांच साल सरकार चलाने के बाद फिर पांच साल उनसे सहयोग ले रहे हैं, महाराष्ट्र में आप उनसे सहयोग ले ही रहे हैं। सोनियाजी के विदेशी होने का विरोध करने केे लिए ही तो यह पार्टी बनी थी। अब बताइए किसका चरित्र दोहरा है?
कांग्रेेसी- एनसीपी के पीए संगमा ने माफी मांग ली है हाल ही में, आप लोग अखबार नहीं पढते क्या?
भाजपाई- बेटी अगाथा को मंत्री बनाए जाने पर यह संगमाजी का अपने ढंग का आभार प्रदर्शन था, क्या शरद पवार उनसे सहमत हैं और माफी मांगेंगे?
राजदाई- यह भाजपा यूपीए में फूट डालने की चाल चल रही है, हम लोग इसकी चाल में नहीं आएंगे।
भाजपाई- आप लोग यूपीए में अब भी हैं क्या? एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लडकर आप केवल चार ही सीटें ला पाए, फिर भी यूपीए की चिंता?
राजदाई- फिकिर मत करिए नीतिश बाबू भी यूपीए में आ जाएंगे।
सदन एक बार फिर शोर में डूब गया, कार्यवाही 10 मिनिट के लिए स्थगित
सीन आखिरी
कार्यवाही फिर आरंभ हुई
भाजपाई- देखिए हमारा विरोध सोनियाजी से नहीं उनके विदेशी मूल से था, उस पर हम अब भी कायम हैं लेकिन हम महिला बिल पर सहमत हैं। हमने अपने यहां 33 प्रतिशत आरक्षण लागू किया है। भविष्य में उसके पालन पर भी विचार करेंगे।हमारे यहां महिला नेताओं की न कमी है और न ही हम उन्हें आगे बढने से रोकते हैं। अभी भी सदन की उपनेता सुषमा स्वराज को बनाया है।
राजदाई- ये लोग राबडी देवी का भी विरोध किए थे लेकिन न हम तो इनसे डरे और न आज डरते हैं।
जद-यूआई- विरोध राबडी देवी का नहीं किए थे हम लोग, हम तो जंगलराज का किए थे, विरोध जनता ने हमारा साथ दिया, अब लालू, पासवान कहां हैं, बताईए तो बिहार में?
कांग्रेसी- अध्यक्ष महोदया, ये सदन का वक्त बर्बाद किया जा रहा है, ये महिला बिल से ध्यान हटाने की साजिश है।
कई दलों की महिला सदस्य एक साथ
सही बात है अध्यक्ष महोदया, पुरूष सदस्य नहीं चाहते कि महिला बिल पर चर्चा हो और उसे पारित किया जाए। हम आज इस बिल को पास करवाकर ही मानेंगी, वर्ना यहीं हडताल करेंगी। हम पूरे देश में हडताल करेंगे, महिलाओं का आव्हान करेंगी कि जब तक यह बिल पास न हो जाए, वे खाना नहीं बनाएं और न ही घर के कोई और कामकाज करें। शोर बढता ही गया। मैं घबराकर उठ बैठा। पत्नी जगा रही थीं, वह भी डांटते हुए- न टाइम से सोना, न टाइम से उठना, घर का कोई काम नहीं करना। घडी तो देखो जरा, सुबह के नौ बज रहे हैं। पत्नी की बात सही थी, पत्नियां जितना काम करती हैं, हम करते हैं क्या? जवाब है नहीं करते। अखबार उठाया, उस पर नजर घुमाई, मुख्य शीर्षक था- संसद में महिला बिल पर बहस जारी है।।मैंने सोचा हे प्रभु अभी से ये हाल हैं तो बिल पारित होने पर क्या होगा, हम पुरूषों का। हे प्रभु हमें बचा, शरद यादव को बचा, महिला बिल को फिर ठंडे बस्ते में डालने की मति श्रीमती सोनिया गांधी को दे। आमीन! : सतीश एलिया

शुक्रवार, 12 जून 2009

भाजपा की समस्या क्या है?

भारतीय जनता पार्टी मं एक बार फिर शीर्ष स्तर पर लोकसभा चुनाव की पराजय को लेकर एक दूसरे के माथे पर ठीकरा फुटौव्वल जारी है। ऐसा लगता है कि कोई भी नेता खुद को जिम्मेदार मानने के बजाय दूसरे नेता को या गुट के सर दोष मढकर खुद को पाक साफ मानने में जुटा है। लडाई पार्टी फोरम के मीडिया के जरिए लडी जा रही है। बंदूक चलाने वाले मीडिये के कांधे का इस्तेमाल कर रहे हैं और मीडिया वालों को भी इसमें मजा आ रहा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या वाकई जनता ने भाजपा को नकार और कांग्रेस को स्वीकार किया है? या फिर जनता के न चाहते हुए भी नेताओं की आपसी रार से नतीजे भाजपा के खिलाफ चले गए हैं। वर्तमान में भाजपा में चल रहे संघर्ष के दो प्रमुख दिखाई देने वाले कारण नजर आ रहे हैं। एक तो सुधींद्र कुलकर्णी जो एलके आडवाणी के लिए इतने खास हैं कि उनके लिखे भाषण को पाकिस्तान में पढकर आडवाणी जी जिन्नावादी का तमगा हासिल कर चुके हैं और वह झटका उनके कैरियर के साथ अब तक चिपका हुआ है। लेकिन कुलकर्णी साहब भी आडवाणीजी के लिए अब भी उतने ही अजीज बने हुए हैं। दूसरा कारण अरूण जेटली जैसे नेता हैं, जिनकी अगुवाई में इंडिया शाइनिंग पांच साल पहले के लोकसभा चुनाव में अंधेरे में तब्दील हो गया था। वे अब राज्यसभा में भाजपा के नेता हो गए हैं। इस पूरे मामले में हार के कारणों का राज्यवार ईमानदारी से आकलन करने के बजाय मीडिया के जरिए यादवी संघर्ष में भाजपा नेता जुटे हैं। याद करिए उमा भारती का भाजपा से निलंबन। उस पूरे घटनाक्रम के पीछे भाजपा के सेकंड लाइन के नेताओं का मीडिया के जरिए जमीन से जुडे नेताओं के खिलाफ अभियान ही था। वह अभियान चलाने वाले और इंडिया शाइनिंग चलाने वाले एक ही ही थे। एक अभियान सफल रहा और दूसरा असफल। दोनों से ही पार्टी कमजोर हो गई। मेरा मकसद उमा भारती, कल्याण सिंह, गोविंदचार्य या ऐसे ही भूतपूर्व भाजपा नेताओं की पेरोकारी नहीं है। लेकिन भाजपा के लगातार मजबूत होती चली जाने के जो कारण थे, उनके ठीक उलट चलने से पार्टी लगातार कमजोर होती चली जा रही है। ऐसा नहीं है कि पार्टी जमीन नेताओं और पिछडे वर्गों के प्रतिनिधियों को दरकिनार करने भर से लगातार हार रही है। इसकी वजहों में मूल मुददों से भटकना भी है। इसका एक उदाहरण मैं अपने अनुभव से देना चाहूंगा। करीब दो साल पहले भोपाल में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिनी बैठक हुई। इसमें पारित प्रस्तावों में से एक रामसेतु पर था। इस सत्र के बाद डा. मुरली मनोहर जोशी की प्रेस कांन्फरेंस हुई। इसमें जोशी जी ने केंद्र सरकार पर जमकर प्रहार किए और रामसेतु को भारतीय अस्मिता का प्रतीक बताया, ठीक उसी तरह जिस पार्टी राम मंदिर को बताती रही है। जब मैंने उनसे सवाल पूछा कि क्या रामसेतु भाजपा का चुनावी मुददा बनेगा, जैसा कि राममंदिर का निर्माण था? इस पर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष डा. जोशी का उत्तर था कि राम मंदिर भाजपा का मुददा कभी नहीं था, रामसेतु भी नहीं होगा। हम तो बस राम सेतु को बचाने के लिए बनी समिति का समर्थन करेंगे, जैसा राम मंदिर के आंदोलन के लिए किया था। अब आप ही सोचिए भाजपा जब राममंदिर को अपना मुददा नहीं मानती और इससे साफ इंकार करती है कि यह कभी उसका मुददा था भी, तो जनता में इस पाटी्र की साख नहीं गिरेगी क्या? डा. जोशी प्रेस कान्फरेंस में मेरे इस सवाल के बाद सवालों की बौछार से घिर गए तो प्रेस कान्फरेंस खत्म कर चल दिए। जब वे गन मेनों से घिरे हुए मेरे करीब से गुजरे तो मैंने उनका हाथ पकड.कर उन्हें रोक लिया, और उनसे कहा- जोशी जी राम मंदिर कभी आपका मुददा नहीं था, ये क्या कह दिया आपने? हम लोग तो तब स्टूडेंट थे और पढाई से ज्यादा कश्मीर से धारा 370 हटाने, राम मंदिर बनाने, देश में एक नागरिकता एक कानून मुददों के समर्थन में बहस करते थे। पूरी एक पीढी आपके जिन मुददों पर निहाल हुई थी, वह क्या मूर्ख थी? जोशी इस पर जबाब नहीं दे पाए थे और उनके गनमैन संवाददाताओं को परे हटाकर रास्ता बनाने में जुट गए थे। अब भाजपा की केंद्र में सरकार नहीं बनने पर सबसे पहले बयान देने वालों में डा. जोशी ही अव्वल रहे। हार पर मीडिया में चर्चा करने वाले दूसरे शख्स जसवंत सिंह के राजस्थान में भाजपा की दुर्गति में उनका क्या योगदान नहीं है? हर राज्य में भाजपा के पिटने के कुछ कारण अलग भले हो सकते हैं, लेकिन एक कारण बहुत साफ है कि नेता एक दूसरे को नीचा दिखाने, हराने और खुद का पाक साफ बताने में लगे रहते हैं, नतीजा सामने है। असल में जनता जिन वजहों से कांग्रेस से छिटकी थी, वही सब भाजपा के नेता, मुख्यमंत्री और मंत्री से लेकर पार्षद और कार्यकर्ताओं ने अपना लिया है। जनता को यह समझ आ गया है कि कांग्रेस और भाजपा में कोई फर्क नहीं रह गया है। कांग्रेस में भले ही वंशवाद कह लीजिए लेकिन सर्वोच्च स्तर पर नेता की वजनदारी बरकरार है, वही भाजपा पर भारी पड गई। भाजपा के बाद अटलजी के बाद कोई और जी न तो हरदिल अजीज हैं जनता में और न ही कार्यकर्ताओं में। भाजपा को यादवी रार से उपर उठकर हार के वास्तविक कारणों को स्वीकार कर कमियों को दुरूस्त करना होगा क्योंकि देश के लोकतंत्र को दो मजबूत राष्ट्रीय दलों की दरकार है। अन्य दलों के दलदल को कम करना स्थायित्व के लिए जरूरी है। उम्मीद है कि वातानुकूलित कक्षों के अभ्यस्त भाजपा के ताकतवर नेता तपती गर्मी का अहसास कर जनता का वास्तविक संदेश समझ पाएंगे।

गुरुवार, 11 जून 2009

वक्त के सफीने से चंद अल्फाज

मैं सौ सौ कसमें खाता हूं फिर भीहर बार तेरी याद में गुम हो जाता हूं।
तेरी यादों से बावस्ता होने सेमिलता है सुकूं मेरी रूह कोकहां मैं तेरे नाम के बगैर सांस लेता हूं।
जुदाई की तडप है यादों के बलबले हैं,बिन तेरे जीने के इम्तिहां में हार जाता हूं।
मशरूफियत, जिंदगी की जददोजहद सेमिल जाती है राहत मुझकोदिल पर रखकर हाथ जो तेरा नाम लेता हूं।
यूं तो जिंदगी की सख्तगी कोहंसते हंसते झेल लेता हूंजब तेरी याद आती है तो जार जार रोता हूं।
मैं सौ सौ कसमें खाता हूं फिर भीहर बार तेरी यादों में गुम हो जाता हूं।

सतीश एलिया
भोपाल 10 जून 1992

बुधवार, 10 जून 2009

हबीब तनवीर के नाटकों को याद करते हुए भाग-2

मित्रो, गांव की माटी की छुअन, लोकमंच की सुगंध को समेटकर नया थिएटर से भारतीय रंगमंच को नया मकाम देने वाले हबीब तनवीर यहां भोपाल में मंगलवार की शाम सुपुर्दे खाक हो गए। रंगमंच के अलावा टीवी सीरियल कब तक पुकारूं और प्रहार जैसी फिल्म में उनकी उपस्थिति भी आपको याद होगी। मैंने उनके दो नाटकों के प्रदर्शन की समीक्षा पिछले अंक में आपको पेश की थी, दूसरी किश्त में अब दो और नाटकों की बात पेश है, इनमें हबीब साब के चरणदास चोर की प्रस्तुति भी है।
अपनी ही आशंका को सच किया हबीब तनवीर ने
देशबंधु, भोपाल 17 फरवरी 1993स्थानः भारत भवन का अंतरंगमौकाः भारत भवन की सालगिरह का समारोह
आज भारत भवन के अंतरंग में हबीब तनवीर के निर्देशन में खेला गया नाटक कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना, न तो कामदेव से संबंधित है और न ही बसंत ऋतु से। यह शेक्सपियर के नाट अ मिडसमर नाइटस ड्रीम्स का लचर रूपांतरण भर बन पाया, दर्शकों ने भी इसे कमजोर माना। शेक्सपियर के नाटक के जो द्रश्य श्री तनवीर ने लिए हैं, उनमें भी रूपांतरण ने खलल ही डाला है। एथेंस के डयूक थीसस का अपनी मंगेतर से प्रणय वाला द्रश्य भी कामेडी बन गया और देशीपन डालने के उददेश्य से बस्तर का न्रत्य भी दर्शक को बांध नहीं पाया। जंगल में परियों की रानी और राजा वाले प्रसंग में राजा द्वारा रानी को छकाना जरूर कुछ हास्य पैदा करता है। एथेंस के मजदूरों द्वारा डयूक को प्रसन्न करने नाटक और उसकी रिहर्सल दर्शकों को मसखरी का मजा देती है। छत्तीसगढ अंचल की नौटंकी से मिलता जुलता और आदिवासी बोली का ज्यादा प्रयोग नायक को मसखरा बनाता है। नाटकों में काॅमेडी भी दर्शकों को अलग दुनिया में ले जाती है, और मानवीय भावों का विवेचन करती है लेकिन कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना, यह असर नहीं छोडता।द्रश्यांतर और द्रश्यों में आए गीत अपभी लय और संगीत के कारण भले लगते हैं। संवादों का जोर जोर से बोलना नाटक में खटकता है। हबीब तनवीर के ही शब्दों में हाल में कुछ नाटय रूपांतरण किए जो अधिकतर गद्य रूप में हैं और कुछ मूल में अत्यंत बेढंगे और अधकचरे। यहां तक कि पद्य में किए गए अनुवाद भी अक्सर कुद ऐसी गीतात्मकता लिए होते हैं, जो अतिभावुक कविता के लक्षणों के करीब ठहरती है। उनका यह नाटय प्रदर्शन शेक्सपियर के नाटक का यही हाल करता लगता है। - सतीश एलिया
दर्शकों ने सर आंखों पर लिया हबीब के चरणदास चोर को
दैनिक नई दुनिया

भोपाल, 1997 की कोई तारीखस्थानः रवींद्र भवनमौकाः चरणदास चोर का मंचन
भोपाल को देश के नक्शे पर सांस्कृतिक राजधानी बनाने की गरज से अस्सी के दशक में कला और सांस्कृतिक आयोजनों के अतिरेक के बाद नब्बे के दशक में इस क्षेत्र में उतर आया शून्य और सन्नाटा अब टूटने लगा है। खासकर रंगकर्म के क्षेत्र में तो दर्शक की लगभग अनुपस्थिति का कडवा सच अब उसकी उपथिति से मीठे सच में तब्दील हो रहा है। भारत भवन के अंतरंग में उषा गांगुली के नाटक रूदाली और आज रवींद्र भवन में हबीब तनवीर के नाटक चरणदास चोर के प्रदर्शन में दर्शकों की मौजूदगी से भोपाल में नाटक के जी उठने की उम्मीद बंधी है। थिएटर का मर्सिया पढने वालों को आज रवींद्र भवन में होना चाहिए था, जब दर्शकों की तालियां थमने का नाम नहीं ले रही थीं। आज दर्शक न केवल आए बल्कि इस कदर आए कि हालत यह हो गई कि आयोजकों को फुल हाउस का बोर्ड लगाना पडा। सांस्कृतिक संस्था सूत्रधार के हफते भर के नाटय समारोह का आगाज हबीब तनवीर के विख्यात नाटक चरणदास चोर से हुआ। उनके नया थिएटर की इस प्रस्तुति में छत्तीसगढ की लोक नाटय, लोकन्रत्य और लोकगान शैली की पुरअसर छाप के साथ नाटक की वर्तमान पहुंच ने दर्शकों को दो घंटे बांधे रखा। कथ्य के बीचबी में कोरस गान और पंथी न्रत्य की सधी लय ताल ने चरणदास चोर के संदेश को सही ढंग से दर्शकों तक पहुंचाया। बात रवींद्र भवन में हबीब के निर्देशकीय कौशल और उनके लोकरंग से जुडाव को दर्शकों ने सर आंखों पर लिया।चरणदास चोर का कथ्य लोककथा पर आधारित है, जिसमें चोर अपने गुरू को झूठ न बोलने का वचन देता है और प्राण तजकर भी उसे निभाता है। चरणदास गुरू को हाथनी पर न बैठने, सोने की थाली में न खाने, रानी से ब्याह न करने तथा सत्ता न स्वीकारने का वचन देता है और उसे निभाता भी है। हास्य व्यंग्य शैली में समाज, धर्म, राजनीति और सत्ता की कुटिलताओं को बयान करते चलते इस नाटक में चरणदास बने चैतराम, गुरू बने भुलवाराम, रानी बनी अंगेश नाग और हवलदार के रूप में खुद हबीब तनवीर ने जीवंत अभिनय किया। अन्य सहयोगी कलाकारों ने नाटक की गति को बरकरार रखा और पंथी न्रत्य दल ने तो जैसे दर्शकांे को साधे रखा।नाटक का क्लाइमैक्स चरणदास चोर की अपनी सत्य निष्ठा पर पा्रण न्यौछावर करने से होता है। चरणदास की लाश को उठाकरन ले जाने का द्रश्य हबीब तनवीर के दूसरे ख्यात नाटक जिस लहौर नई वेख्या ओ जन्म्याई नईं की तरह दर्शकों को सनाके में छोडता है। लेकिन यहां हबीब सत्य की समाधि बनवा देते हैं और उसकी पूजा करवा देते हैं, इससे नाटक का क्लाइमैक्स दर्शकों के सामने छोडे सवाल के असर को कुछ कमजोर कर जाता है। आज की प्रस्तुति में संगीत पक्ष सशक्त रखा खासकर हारमोनियम से स्रजित पाश्र्व संगीत। आज की प्रस्तुति में नया थिएटर, चरणदास चोर और दर्शकों के बीच कुछ खटका तो रवींद्र भवन का हाॅल। हाॅल में मंच से ध्वनि दर्शकों तक पहुंचने में अपना असर खो रही थी और उमस से भरे खचाखच हाॅल में पंखे तक नहीं चल रहे थे। एक अच्छे नाटक को देखने में दर्शकों को गर्मी, उमस झेलना पडे। इसी वजह से मध्यांतर में कुछ दर्शक चले भी गए। -सतीश एलिया

मंगलवार, 9 जून 2009

हबीब तनवीर के नाटकों को याद करते हुए- भाग-1

अर्सा हो गया कोई नाटक देखे हुए, असल में हमारे रोजीरोटी के काम और उनकी मशरूफियत हमारे शौक, कमिटमेंट और यहां तक की वजूद तक को मटियामेट करने की हद तक जा सकते हैं, इसका अहसास मन को बेचैन कर देता है। मेरी रूचि, कमिटमेंट और जज्बा मुझे पत्रकारिता में लाया था। शुरूआत के पांच सात सालों में इस पेशे ने मुझे जो दिया उसमें साहित्य, कला, रंगमंच, राजनीति और प्रशासन को लेकर नई समझ और द्रष्टि दी। अपने अपने क्षेत्र के उदभट लोगों से मुलाकात और गुणी लोगों की संगत ने पत्रकारिता में आने के फैसले को सार्थकता दी थी। थिएटर को लेकर मेरी रूचि ने ही मुझसे पत्रकारिता में भी कला समीक्षक के तौर पर काम करवाया लेकिन बाद में पत्रकारिता की इस विधा में पूर्णकालिक के बजाय पार्ट टाइम टाइप लोगों की गुंजाइश ही ज्यादा दिखाई दी तो प्रशासनिक और राजनीतिक रिपोर्टिंग का रास्ता अख्तियार कर लिया। मन के सुकून के बजाय दिमाग वाले काम को तरजीह देना पड.ी। खैर अपना ये रोना फिर कभी, अभी हबीब साहब के नाटकों के बारे में बात करूं। उनके करीब एक दर्जन नाटकों के दो दर्जन से ज्यादा प्रदर्शन मैंने देखे और उनमें से आधा दर्जन की समीक्षा भी लिखी। ठेठ छत्तीसगढिया नाटक- गांव के नांव ससुराल मोर नांव दामाद हो या फिर चरणदास चोर, देख रहे हैं नैन, कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना या फिर जिस लहौर नई वेख्या ओ जन्म्याई नईं या फिर मुद्रा राक्षस जैसा क्लासिकल प्ले। इन सबमें हबीब तनवीर का ठेठ छत्तीसगढिया अंदाज, गान और उनके अपने नया थिएटर की सुंगध अलग ही आस्वाद देती थी। मैं यहां 1993 से १ 997 के बीच चार नाटकों की समीक्षा प्रस्तुत कर रहा हूं, जो प्रदर्शन के तत्काल बाद मैंने लिखीं और अगले दिन सुबह के अखबार में छपीं थीं। इनमें से जिस लहौर नईं.... तो उस वक्त खेला गया था जब भोपाल में दिसंबर १ 992 में बाबरी विध्वंश के बाद हुए दंगों का जहर फिजा में घुला हुआ था। वो तनवीर ही थे जिन्होंने साम्प्रदायिकता के गाल पर झापड सा यह नाटक भोपाल में प्रदर्शित किया था। पहली किश्त में आज दो नाटकों की समीक्षा, अगली किश्त में दो और नाटकों के बारे में। पेश है पहली किश्त

जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईंः साम्प्रदायिकता के मुहं पर तमाचा
देशबंधुभोपाल, 18 सितंबर १९९३
स्थानः रवींद्रभवनाधर्म का मूल संदेश बंधुत्व, मानवीयता और सहिष्णुता है। चंद राजनीतिबाज और असामाजिक तत्व धम्र को कटटरता के दायरे में लाने का कुत्सित प्रयास करते हैं। जिससे भारत विभाजन जैसी त्रासद स्थितियां निरीह नागरिकों को झेलना पडती हैं। इस सबके बावजूद इंसानियत और भाईचारा खत्म नहीं होता लेकिन सदभावना को हमेशा ही कठमुल्ला और जडचेतना के हामी लोगों से खतरा बना रहता है। यह केंद्रीय भाव है असगर वजाहत लिखित और हबीब तनवीर लिखित नाटक -जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईं , का। रवींद्र भवन के सभागार में हबीब तनवीर निर्देशित इस नाटक की कथा वस्तु का केंद्र है देश के विभाजन के तत्काल बाद की घटनाएं। लेकिन कटटरपंथियां का धर्म का ठेकेदार बनने का प्रयास तािा इंसानियत को दबोचने का कुजक्र आज के माहौल को शिददत से हमारे सामने आता है। नाटक धर्म के कथित ठेकेदारों को बेनकाब तो करता ही है, सभी धर्मों के सारतत्व सदभाव और बंधुत्व को प्रभावी ढंग से उभारता है। नाटक में विभाजन के बाद की स्थिति का सजीव चित्रण है। लखनउ से सिकंदर मिर्जा का परिवार लाहौर पहुंचता है, वहां उन्हें एक हवेली एलाट होती है। यह परिवार जब हवेली में रहने पहुंचता है तो पता चलता है कि वहां एक बूढी महिला पहले से ही रहती है। मिर्जा उससे हवेली खाली करने को कहते हैं लेकिन महिला कहती है मैं मर जाउंगी लेकिन हवेली खाली नहीं करूंगी, यह हवेली मेरी है। यह बुजुर्ग महिला रतन जौहरी की मां है। रतन विभाजन के बाद हिंदुस्तान जा बसा है। मिर्जा रतन की मां को समझाते हैं- रतन की मां को अब हिंदुस्तान चले जाना चाहिए क्योंकि अब पाकिस्तान में कोई हिंदू नहीं रह सकता। मिर्जा रतन की मां को हवेली से बेदखल करने के लिए सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत भी देते हैं, लेकिन काम नहीं बनता। इस बीच रतन की मां लखनउ से लाहौर आए इस मिर्जा के परिवार की मदद घर के बुजुर्ग की तरह करती है। मिर्जा की पत्नी, बेटी, बेटा रतन की मां को चाहने लगते हैं। स्वयं मिर्जा जो रतन की मां को मारने के लिए गुंडों को पांच हजार रूपए देने पर राजी हो गए थे, अब उन्हें माई कहने लगते हैं। गुंडे अब मौलवी के पास जाते हैं कि एक काफिर लाहौर में नहीं रह सकता। मौलवी उनसे जब यह सवाल करते हैं कि इस्लाम क्या है? तो गुंडांे के पास कोई जबाव नहीं होता, वे गालियां कने लगते हैं। नाटक में कइ्र हास्य प्रसंग भी हैं, जो उसे सहज बनाने में मददगार साबित होते हैं।रतन की मां मिर्जा परिवार की सदस्य हो जाती हैं, यही नहीं पूरा मोहल्ला उस हिंदू महिला से प्यार करने लगता है। दीवाली पर सब रतन की मां के साथ त्यौहार मनाते हैं। नाटक में एक शायर है नासिर काजमी जो इंसानी जज्बों को खूबसूरत शेरों में बयान करता है। वह विभाजन के दर्द को भी शायरी में बयान करता है। यही नहीं नासिर गुंडों से भी नहीं डरता वह कहता है- ये लोग परेशान रहते हैं, परेशान करते हैं और परेशान ही मर जाते हैं।असामाजिक तत्व इस्लाम के नाम पर रतन की मां को पाकिस्तान से भारत भेजने के लिए हिंसा का माहौल बनाते हैं, लेकिन मिर्जा परिवार, नासिर, मौलवी साहब और मोहल्ले के लोग पुरजोर विरोध करते हैं। मिर्जा परिवार को संकट में फंसा देख एक दिन अचानक रतन की मां ठान लेती है कि वो दिल्ली जाएंगी। लेकिन मिर्जा के बच्चे रोने लगते हैं और मिर्जा परिवार रनि की मां को अपनी कसम देकर कीाी लहौर न छोडने का वादा ले लेते हैं। एक दिन रतन की मां की मौत हो जाती है। अब समस्या उनके अंतिम क्रिया कर्म की आती है। मौलवी साहब राय देते हैं कि रतन की मां जीवन भर हिंदू रहीं इसलिए हिंदू रीति से उनका अंतिम संस्कार किया जाए लेकिन कटटरपंथी एक बार फिर इस निर्णय का विरोध करते हैं। इस बार मौलवी साहब की हत्या कर दी जाती है। अब रतन की मां की अर्थी और मौलवी साहब का जनाजा एक साथ उठता है, कठमुल्ले फिर हमला करते हैं और कत्ले आम शुरू हो जाता है।नाटक का अंत त्रासद है। लेकिन वह हमें झकझोरता है कटटरवाद के खिलाफ, और हमारी आंखें खोलता है कि बंधुत्व सारे धर्मों का सार है। नाटक की प्रस्तुति के बीच में गीत और गजलों का समावेश है जो मुख्य मंच से परे बाहर की ओर समूह रूप में पेश होते हैं। गीतों का चयन और संगीत ह्रदय स्पर्शी है। नाटक में गीत द्रश्य परिवर्तन के समय आते हैं लेकिन वे सहजता से आए हैं। बेशक हबीब तनवीर श्रेष्ठ निर्देशक हैं। यह बात नाटक के एक एक फ्रेम में नजर आती है। नाटक में शामिल ये गीत पूरी प्रस्तुति को ताकत देता है- जुल्म तो जुल्म है बढेगा तो मिट जाएगा, खून तो आखिर खून है गिरेगा तो जम जाएगा। जिस लहौर नईं वेख्या ओ जन्म्याई नईं, देखने के बाद दर्शक वही नहीं रहता जो वह नाटक देखने से पहले था। निश्चय ही वह साम्प्रदायिकता के खिलाफ हो जाता है, और यही नाटक की सफलता है। - सतीश एलिया
देशबंधुभोपाल, 16 फरवरी, १९९४
स्थानः भारत भवन
मौकाः भारत भवन वर्षगांठ समारोह
यक्ष प्रश्न को एक बार फिर पूछता है देख रहे हैं नैन

हम सबकी जिंदगी में ऐसे क्षण आते हैं जब हमें अपने ही कर्म और प्रतिबद्धता संदिग्ध लगने लगते हैं। उंची से उंची स्थिति में पहुंचा हुआ आदमी भी खुद को संदेह के घेरे में खडा पाता है और यहीं से शुरू होती है बेचैन मन की खुद के काम से संतुष्ट होने की यात्रा। यह केंद्रीय भाव है हबीब तनवीर के नाटक देख रहे हैं नैन का। श्री तनवीर मौजूदा समाज को बेनकाब करने के साथ ही सवाल खडे करते हुए चलते हैं और पूरे नाटक में दर्शक उनकी उंगली थामे चलता है और आखिर में उसके सामने एक प्रश्न खडा हो जाता है, तनवीर उंगली छोडकर चले जाते हैं। जर्मन कथाकार स्टीफन ज्वाएग की कहानी विरत पर आधारित यह नाटक आज के दौर को भी सपाट बयानी के साथ प्रस्तुत करता चलता है। हबीब तनवरी इस नाटक में अपने पुराने तेवर के साथ नए अंदाज में आते हैं। द्रश्य परिवर्तन के समय गीतों का होना कथानक को मजबूत ही करता है। नाटक में कुछेक संवाद सभ्य कहे जाने वाले समाज में अश्लील कहे जा सकते हैं, लेकिन वे हमारे समाज में हैं और नाटक में वे सहज ढंग से आए हैं अैर द्रश्य तथा पात्र की भावदशा से एकमेक हैं।नाटक का कथानक कुछ इस तरह से है कि राजा विजयदेव के राज्य में जनता महंगाई से पीडित है, ऐसे में युद्ध शुरू हो जाता है और जनता में से कोई राजा की सेना में शामिल नहीं होना चाहता। विरत अपने पुत्रों, संबंधियों और बचे खुचे सैनिकों को लेकर विजयदेव का राज्य बचा लेता है। लेकिन उसक हाथें राजा के विरोधी अपने ही भाई की हतया हो जाती है। म्रत भाई की आखें देख विरत अपने कर्म पर पछताता है, अब वह युद्ध से विरत हो जाना चाहता है। राजा उसे सेनापति बनाना चाहता है, लेकिन विरत राजी नहीं होता। राजा उसे न्यायधीश बना देता है। न्याय के बंधे बंधाए ढर्रे पर चलते न्यायधीश विरत की अदालत में एक हत्यारे गोमा को लाया जाता है। उसका अपराध है कि वह गां के मुखिया की बेटी से विवाह करना चाहता है, उसकी प्रेमिका का पिता बेटी को कहीं और ब्याहना चाहता है। गोमा मुखिया समेत 11 लोगों को मार डालता है। न्यायधीश विरत गोमा को 11 वर्ष कारावास और हर साल सौ कोडों की सजा सुनाता है। अपने पक्ष में गोमा बस इतना कहता है कि हमारे घर जलाए गए, जाति के नाम पर प्रेमिका से शादी नहीं होने दी और लडकी बेच दी, यह अन्याय नहीं और मैंने जुनून में हत्या कर दी तो यह जुम है और फिर तुम जो दंड देते हो उसे भुगता है? क्या तुम भगवान हो? गोमा कि आंखों में वही सवाल कि क्या तुम सही कर रहे हो? विरत को विचलित कर देता है। वह एक माह का अवकाश लेकर गोमा की जगह कारावास भुगतता है, राजा उसे मुक्त करता है। अब विरत न्यायधीश नहीं रहना चाहता। राजा उसे जागीर देता है। सुकून की जिंदगी जी रहे विरत को एक दिन पता चलता है कि उसके बेटे लोगों को गुलाम बनाकर न केवल उनसे काम करा रहे हैं बल्कि अत्याचार भी कर रहे हैं। रोकने पर बेटे के सवाल उसे बेचैन कर देते हैं, वह संन्यासी हो जाता है। संन्यास में भी बेचैन आंखों का सवाल उसे परेशान करता है, तुम क्या कर रहे हो? वह अब डोम का काम करने लगता है। यहां भी उसके सामने बार बार यही सवाल आता है। असल मंें हम सब विरत हैं और बार बार हमारे सामने भी यह सवाल आता है, इसका उत्तर हमें ही ढूंढना है, यही हबीब तनवीर के इस नाटक का छोडा हुआ सवाल भी है। तनवीर ने नाटक में सात गीत पिरोए हैं, जो सवाल की शक्ल में बार बार बल्कि हर द्रश्य में आते हैं। तनवीर की खासियत है कि वे नाटकों में मौजूदा व्यवस्था के मुखौटे नोंचते चलते हैं। देख रहे हैं नैन, हमारे भीतर बैठे साक्षी के नैन हैं, जो सवालों को हल करने की मांग करते हैं। इस नाटक में बस्तर का भी पुट है और जवारा काली पूजा भी अपने पूरे असर के साथ नाटक में मौजूद है। द्रश्य परिवर्तन के लिए ज्यादा प्रयुक्त हुए गीत कभी कभी द्रश्यों के साथ भी चलते हैं, बस्तर की लोकधुन नाटक की जान है।

हबीब तनवीर के बारे में

मित्रो, मैं अठारह सालों से जिस शहर भोपाल में हूं, वहां थिएटर को एक नया मुहावरा देेने वाले हबीब तनवीर भी करीब करीब इतने ही सालों से लगभग स्थाई तौर पर रह रहे थे, अर्से से बीमार हबीब साहब ने सोमवार को इस फानी दुनिया में आखिरी सांस ली। उनके निधन की खबर आने के कुछ ही देर बाद दूसरी दुखद खबर विदिशा से भोपाल के रास्ते में वाहन दुर्घटना में अग्रज कवि ओमप्रकाश आदित्य समेत तीन कवियांे के निधन का समाचार आया। चार दिन के मप्र दौरे पर आया तेरहवां वित्त आयोग सोमवार को भोपाल में था, एक संवाददाता के नाते में मेरी व्यस्तता भरा दिन था, लेकिन दिन भर साहित्य और रंगमंच जगत को लगे सदमे से बेचैन रहा। खासकर हबीब साहब के बारे में कुछ लिखने का मन था, नहीं लिख पाया, इसकी बेचैनी अब तक है। मैं बतौर रंगप्रेमी, दर्शक, समीक्षक और पत्रकार हबीब साहब के संपर्क में रहा था। उनके कुछ चर्चित नाटक देखे, उनकी समीक्षा भी लिखी और 1996 में भारत भवन के रंगमंडल के निदेशक के रूप मेें उनके खिलाफ कलाकारों के अभियान, विवाद, श्री तनवीर का इस पद से 9 माह में ही इस्तीफे के घटनाक्रम से बतौर संवाददाता जुड.ा रहा। असल में रंगमंडल के कलाकारों को लगता था कि श्री तनवीर अपने नया थिएटर के कलाकारों को रंगमंडल में लाना चाहते हैं, और पुराने कलाकारों को आउट करना चाहते हैं। भरोसा न हो तो साथ काम करना मुश्किल ही होता है, विवाद तो खैर होते ही हैं। हबीब साहब रंगमंडल में होते हुए भी अपने नया थिएटर के साथियों को मझधार में कैसे छोड सकते थे। आखिरकार हबीब साहब ने इस विवाद का पटाक्षेप इस्तीफा देकर किया था। श्री तनवीर ने तब भारत भवन की स्वायत्तता पर गंभीर सवाल उठाए थे, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। इसी दौरान हबीब साहब से कई दफा मुलाकात हुई। इस विवाद के दौरान उनकी बेचैनी को न केवल करीब से देखा बल्कि इस्तीफे के बाद उनका लंबा इंटरव्यु भी किया था, जो दैनिक नई दुनिया में तब प्रकाशित भी हुआ था। पुरानी कतरनों में यह इंटरव्यु बहुत तलाशा लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, वक्त पर वही चीज नहीं मिलती, जिसकी तलाश की जाए, दूसरी चीजें मिल जाती हैं। तो अलग-अलग वक्त में भोपाल में हुए श्री तनवीर के तीन नाटकों की समीक्षा मिल गइ्र्र और उनके इस्तीफे की खबर भी। खबर सबसे पहले मैंने ही लिखी थी। मैं इस खबर को यहां ज्यों का त्यों यहां उद्ध्रत करूंगा। हालांकि रंगमंडल में श्री तनवीर का जिन कलाकारों से विवाद हुआ था, उनमें से कुछ इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन मेरा मकसद किसी के बारे में नकारात्मक तथ्य पेश करना नहीं है। उनमें से कई से मेरी अच्छी मुलाकात थी और कुछ तो उस वक्त मेरे अच्छे मित्र भी थे। इससे पहले श्री तनवीर से हुई मुलाकात का जिक्र करना चाहूंगा, मुझे उनसे मिलकर जो अनुभव हुआ था।
रंगमंडल विवाद के वक्त मैं नया थिएटर से जुडे मेरे बिलासपुर निवासी मेरे मित्र अनूपरंजन पांडे के साथ भोपाल के शिमला हिल स्थिति फ्रलैट में मेरी श्री तनवीर से लंबी बातचीत हुई थी। उनका यह घर भारत भवन से चंद कदम की दूरी पर था। वे रंगमंडल कलाकारों की उनके खिलाफ मुहिम से बेहद विचलित थे, लेकिन उनसे हुई बातचीत में उनका थिएटर के प्रति प्रेम और उनके स्वभाव की गंभीरता ने मुझे बहुत गहरे तक प्रभावित किया। इस मुलाकात के दौरान उनकी पत्नी मोनिका मिश्रा और बेटी नगीन भी थीं। असल में हबीब साहब रंगमंच में जो भी मुकाम हासिल कर सके उसके पीछे की शक्ति मोनिका जी ही थीं। नया थिएटर उन्हीं की देन था, जिसने हबीब तनवीर को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दी और छत्तीसगढ के देशज कलाकारों को रंग आकाश दिया। मोनिका जी ने रंगमंच के मंच पर और नेपथ्य में हबीब तनवीर की पहचान नया थिएटर को उसका मकाम दिलाने में अहम किरदार निभाया। हर कामयाब पुरूष के पीछे महिला की शक्ति होने की कई मिसालों में से यह भी एक मिसाल थी, मैंने इस मुलाकात में इसे शिददत से महसूस किया था। एक और बात जो मुझे बेहद प्रभावित कर गई थी, वो ये कि हबीब साहब, उनका परिवार और नया थिएटर जो उनके परिवार का ही विस्तार था, आपस में अभिवादन के लिए जय शंकर का उदघोष करते थे। मुझे शुरू में यह कुछ अटपटा सा लगा लेकिन फिर में भी अनूप रंजन पांडे की ही तरह इस विस्तारित परिवार का हिस्सा बन गया। लेकिन जैसा कि होता है, वक्त गुजरता जाता है, वे चीजें आपसे छूटती जाती हैं, जो आपको प्रिय होती हैं। पत्रकारिता के बाद के सालों में मेरा कला और रंग जगत से नाता टूट गया और फिर सालांे हबीब साहब से मुलाकात नहीं हुई। लेकिन उनके गुजरने की खबर सुनने के बाद लगातार ऐसा लग रहा है, जैसे उनसे मुलाकात अभी कल ही तो हुई थी, उन्होंने तंबाकू वाली पाइप पीते हुए मेरे अभिवादन के प्रत्युत्तर में कहा था जयशंकर। हबीब साहब को मेरी श्रद्धांजलि। आज ही दूसरे पोस्ट में हबीब साहब के तीन नाटकों के भोपाल में प्रदर्शन पर उसी दिन मेरी लिखी और प्रकाशित समीक्षा को आपके लिए प्रस्तुत करूंगा।
मेरी खबरों की कतरनों से
मैं नियम विरोधी कलाकारों व लापरवाह प्रशासन के बीच सेंडविच बन गया थाः हबीब तनवीरभोपाल, 30 अप्रैल,96। बागी कलाकारों के रवैये और प्रशासन के गैर जिम्मेदाराना ढंग से आजिज आकर दो साल के लिए भारत भवन रंगमंडल के निदेशक बनाए गए ख्यात रंगकर्मी हबीबी तनवीर ने नौ माह में ही इस्तीफा दे दिया। कलाकारों के रवैये और प्रशासन से क्षुब्ध श्री तनवीर ने कहा है कि वे रंगमंडल कलाकारों और प्रशासन के बीच सेंडविच बन गए थे। उन्होंने भारत भवन की स्वायत्ता पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं।अपने इस्तीफे के साथ नत्थी चार पेज की रिपोर्ट में श्री तनवीर ने कहा है कि- मैं नियम विरूद्ध कलाकारों और बेपरवाह प्रशासन के बीच खुद को सेंडविच की तरह दबा पा रहा हूं। बागी कलाकार लगातार नियमों की खिलाफवर्जी करते रहे और प्रशासन ने किसी एक के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं की। रंगमंडल कलाकारों का एक ग्रुप काम करने से इंकार के साथ ही रेपेटरी में नए लोागों को शामिल करने पर भी ऐतराज करते रहे, जबकि वे खुद अनुबंध को आगे बढाते हुए वर्षों से रंगमंडल में हैं।श्री तनवीर ने कलाकारों और उनके बीच विवाद के बारे में रिपोर्ट में लिखा है कि- सात दिसंबर को कुछ कलाकार रिहर्सल छोडकर चले गए। नाटके के प्रदर्शन के तीन दिन पहले रिहर्सल छोडना नाटक को मंझधार में छोडना था। यह कृत्य इसलिए किया गया कि एक कलाकार विभा मिश्रा जो नाटक में मुख्य पात्र की भूमिका के लिए चुनी गइ्र थीं, बाद में चूंकि उनकी तैयारी नहीं थी, इसलिए उनसे यह रोल वापस ले लिया गया। इससे पहले दो अन्य कलाकार संजय मेहता एवं मीना सिद्धू जिन्हें नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका दी गई थी, 23 दिन अनुपस्थित रहे। मीना ने विभा वाले रोल को अस्वीकार करने की गरज से लंबी छुटटी ले ली।श्री तनवीन ने रिपोर्ट में लिखा है कि प्रशासन ने इन कलाकारों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की। जबकि कुछ पुराने कलाकारों का रिकार्ड असंतोषजनकर है। उपस्थिति के मामले में भी ऐसा ही है। विभा मिश्रा ने 1995 में रिकार्ड 167 छुटिटयां लीं, बाकी दिनों में भी तब भी उन्होंने गरम कोट, सराय की मालिकिन और मुद्राराक्षस जैसे नाटकों में काम करने से इंकार कर दिया। श्री तनवीर ने रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि- 1994 में सलाहकार समिति ने विभा मिश्रा के दो साल के अनुबंध को 30 जून के बाद खत्म करने का निर्णय लिया, जिस पर प्रशासन ने अमल नहीं किया। समिति के 8 अगस्त 1987, 24 जुलाई 1988, 15 मई 1989, एक फरवरी 1994 और 4 जुलाई 1996 के फैसलों पर भी प्रशासन ने अमल नहीं किया। श्री तनवीर ने कहा- बेहतर काम के लिए कलाकारों और निर्देशक के बीच अच्छे रिश्ते जरूरी हैं, रंगमंडल कलाकार ऐसा नहीं मानते।

रविवार, 7 जून 2009

देशज शब्द उनके अर्थ और सुगंध जैसे मेहमान और खबर-बतर

मित्रो, शब्दों के अर्थ और देशज बोलियों में उनके प्रयोग कई मर्तबा इतने प्यारे होते हैं कि उनकी भाव भूमि मन को गदगद कर देती है। मैं बचपन से ही बोलचाल के शब्द और उनके मुहावरों पर गौर करता आया हूं, कई दफा बोलियों के शब्द सामथ्र्य और उनकी अर्थ वाहकता चकित कर देती है। उदाहरण के लिए मेहमान शब्द को ही लीजिए। मेह का अर्थ मेघ अर्थात बादल से है। गरमी से त्रस्त लोग जिस तरह मेघ के आगमन से हर्षित हो उठते हैं, ठीक वैसा ही किसी व्यक्ति के आने पर लगे और हम उसे मेह की तरह ही मान दें तो वह व्यक्ति हुआ मेहमान। हालांकि अब मेहमान शब्द उतना आल्हादकारी नहीं रहा खासकर शहरों में। लोग आम तौर पर किसी के आगमन की खबर से खुश नहीं होते। सो इस शब्द में वह भाव नहीं रहा। लेकिन मेहमान शब्द है कितना प्यारा। भीषण गर्मी के इस दौर में जब हम मानसून की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो मेहमान शब्द का भाव समझना काफी आसान है। एक और शब्द की बात करूंगा, शहरी प्रष्ठभूमि के लोगों को यह शब्द तनिक अटपटा लग सकता है लेकिन ग्राम्य प्रष्ठभूमि के मित्र इसे बखूबी समझ पाएंगे। हमारे यहां हालचाल जानने, बूझने, भेजने में एक शब्द का खूब इस्तेमाल होता है। मसलन कोई अपने गांव से आए तो उसके जरिए आई सूचना को पूछते हैं- भइया का खतर बतर लाए हो। या खबर बतर तो सुनाओ भइया। इसी तरह जब कोई एक से दूसरी जगह जा रहा हो और वहां अपना कोई रहता हो तो उससे आग्रह किया जाता है- भइया खबर बतर लेते अइयो। मित्रो खबर का अर्थ तो सभी जानते हैं लेकिन उसके साथ जुडा यह बतर शब्द बडा ही प्यारा है। असल में गांव देहात में किसान बतर पहली बारिश आने के बाद आसमान साफ हो जाने के बाद खेतों की उस स्थिति को कहते हैं जब खेत जोते जा सकते हैं। क्योंकि गीले खेतों में हल नहीं चलाया जा सकता और जब तक खेत जोतने लायक नहीं हों तो बोने की स्थिति कैसे बन सकती है। इसलिए बारिश के बाद खेतों का पानी सूखने लेकिन नमी बनी रहने की स्थिति खेत जोतने की परिस्थिति को निर्मित कर देती है, यही बतर है। तो हालचाल जानने के लिए खबर बतर पूछना या बताना कहते हैं। यानी शुभ समाचार को खबर बतर कहा जाता है। यानी बतर आ गई तो अब खेत जोते जाएंगे, इससे बोनी का रास्ता आसान हो जाएगा। बोनी होगी और फिर बारिश हो गई तो खेतों में फसल लहलाएगी। अच्छी फसल आएगी तो सम्पन्नता आएगी। पूरी खेती चक्र की शुभ की धुरी है बतर, सो अपनों की बेहतरी की फिक्र, अच्छी खबर की उम्मीद के साथ जुडा है शब्द खबर बतर। तो साथियों आप भी अपनी खबर बतर दे रहिए, हमें बताते रहिए हमारा लिखा कैसा लगा। हम भी खबर बतर देते रहेंगे। फिलहाल तो ताजा खबर बतर ये है कि मानसून एक हफते में मध्यप्रदेश में आमद दे देगा, ऐसा मौसम महकमे वालों ने बताया है। उम्मीद कीजिए, पहली बारिश जमकर हो, सूखे ताल, नदी और पोखर भर जाएं। खेत लबालब हो जाएं। इसके बाद बतर आ जाए और अच्छी बोनी हो, अच्छी फसल आए। सब तरफ से अच्छी खबरें आए और हमारा यह प्यारा शब्द खबर बतर आपको याद रहे, जय राम जी की।

शनिवार, 6 जून 2009

मान भी जाइए क्रिकेट हमारा राट्रीय खेल है

मित्रों, मैं अपने ब्लॉग पर सातों दिन अलग-अलग रंग पेश करने का इरादा रखता हूं, इसमें शनिवार का दिन व्यंग्य के लिए होगा। पिछले शनिवार भी मैंने व्यंग्य पोस्ट किया था, जिसे अच्छा प्रतिसाद मिला, इस बार फिर व्यंग्य लेकर पेश हूं, अपनी राय जरूर दीजिएगा बेझिझक। तारीफ लायक न हो तो मत कीजिएगा, वैसे भी मैं आपका क्या बिगाड़ लूंगा।

हमारा राष्ट्रीय खेल क्या है? चोंकिये मत यह सवाल कोई करोड़पति लखपति बनाने वाले गेम शो या पांच का दम दस का दम जैसे किसी दमादम का हिस्सा नही है। न ही मैं आपके सामान्य ज्ञान की हिमाकत ही कर रहा हूं। दरअसल इस सवाल में मेरी अपनी पीड़ा समाई हुई है। और मैं तो आपसे बस अपनी व्यथा शेयर करना चाहता हूं, अर्थात साझा करना चाहता हूं। वो कहते हैं न कि अपना दुखडा दूसरों के सामने रोने से मन हल्का हो जाता है। तो पाठक व्रंद में भी अपनी पिटाई का दर्द आपके कांधे पर सर रखकर सुनाने का ख्वाहिशमंद हूं। अब आप भी अपनी कोई दर्द भरी दास्तां मुझे मत सुनाने लग जाइएगा। क्योंकि होता यही है कि जिसके पास कांधे की तलाश में जाइए वही अपना सर आपके कांधे पर रखकर रोना रोने लगता है। वो गाना है न दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है......तो फिर हम अपना गम नहीं सुना पाते। खैर जैसे ट्रेन में सीट पर रूमाल रखकर सीट पक्की कर ली जाती है, जनरल डब्बे में वैसे ही मैंने पहले आपके कांधे पर सर टिका दिया है तो सुनिए मेरी पीडा। दरअसल में अपने मित्र सवालीराम से खासा परेशान हूं, वह गाहे बगाहे जब चाहे मुझसे कोई न कोई सवाल पूछ ही लेता है, और मैं कोई भी उत्तर दूं, पिटता मैं ही हूं। कल की ही बात है सवाली राम मेरे घर पर आया। सवालीराम उसका असली नाम नहीं है, लेकिन सवाल पूछने की आदत के कारण यही नाम विख्यात हो गया है। तो सवालीराम ने आते ही मुझसे सवाल पूछ डाला। न राम राम न दुआ सलाम, सीधा सवाल दाग दिया- हमारे देश का राष्ट्रीय खेल कौन सा है? मैं कुछ पाउं इतना मौका दिए बगैर उसने कहा- जल्दी नहीं है, इत्मीनान से सोच समझकर जवाब देना, क्योंकि इसमें कोई आप्शन या लाइफ लाइन का मौका नहीं है। मैंने सवाल पर हर एंगिल से गौर किया। वामपंथी, दक्षिण पंथी, खिचडी पंथी, तीसरा मोर्चा, चैथा मोर्चा, एनडीए, यूपीए, फुरसतिए लगभग सभी ढंग से सोच लिया। मौका परस्ती, चापलूसी जैसे सदाबहार नजरियों से भी देखने समझने की कोशिश लेकिन उत्तर नहीं सूझ पडा। सिवाय पाठय पुस्तकों और जनरल नालेज की किताबों में दर्ज जानकारी के मैं और क्या उत्तर देता भला। सो मैंने कहा- हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। अब सवालीराम ने हमेशा की तरह मेरे उपर सवारी गांठी- साबित करो कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। तर्कों और सिद्धांतों को दरकिनार और खारिज किए जाने के दौर में, अपनी बात पर अड़े रहने की अदोलोजि जमकर चल रही है सो मैंने भी सवालीराम से मुकाबला करने के लिए कहा- हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है, क्योंकि वो हमारा राष्ट्रीय खेल है। मेरे हर तर्क को किसी नाकाम सीएम के इस्तीफे की मांग को ठुकराने के अंदाज में माहिर सवालीराम बोला- सांसद क्रिकेट खेलते हैं, क्रिकेट टीम के प्रदर्शन पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री बयान देते हैं। मराठा क्षत्रप शरद पवार से लेकर दलबदलू बेपैंदी के लोटे राजीव शुक्ला तक और शाहरूख से लेकर शिल्पा और प्रीति जिंटा तक, लिकर किंग विजय माल्या से लेकर डान दाउद इब्राहीम तक, जुआरी से लेकर पनवाडी तक कंडक्टर से लेकर पायलट तक सब क्रिकेट की ही बात करते और खेलते खिलाते हैं, मतलब ये कि पूरा राष्ट्र क्रिकेट मय है। टेस्ट मैच से लेकर बीस-बीस उर्फ टवेंटी-टवेंटी तक क्रिकेट का ही जलवा है, अर्थात पूरा देश क्रिकेटमय है तो फिर भला क्रिकेट राष्ट्रीय खेल हुआ कि नहीं? अब मैं बचाव की मुद्रा में आ गया, कहा- खेलों में राजनीति काहे घुसाते हो। सवालीराम ने मुझे फिर पटखनी दी, खेलों में राजनीति तो पहले से ही है, अब नेता भी घुस आए हैं। मुझे लगा कि अब बुनियाद सवाल उठाने का वक्त आ गया है, सो पूछा- यह तो बताओ सवालीराम कि कभी क्रिकेट खेले भी हो, या यूं ही क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल घोषित कराने पर तुले हो? सवाल पूछने की तरह नहले पे दहलानुमा जवाब देने में माहिर सवाली राम बोला- सो तो मैं हॉकी भी कभी नहीं खेला, तो फिर तुम लोग कागजों में हॉकी को राष्ट्रीय खेल बनाए हुए हो कि नहीं राष्ट्रीय खेल हॉकी पर क्रिकेट को भारी पड़ता देख मैं फिर बचाव की मुद्रा में आ गया। पैंतरा बदलने की कोशिश में मैंने कहा- सवालीराम जी आप हाॅकी के खिलाफ बात कर अल्पसंख्यकों की भावना को चोट पहुंचा रहे हैं। कुटिल राजनीतिज्ञ की तरह अल्पसंख्यकों का नाम सुनते ही सवालीराम कुछ चैकन्ना हुआ। मैंने सुनहरा मौका समझकर कहा- हॉकी प्रेमी इस देश में अल्पसंख्यक हैं, आईपीएल के बाद टवेंटी-टवेंटी हो रहा है, नेताओं से लेकर एक्टरों तक की इसमें रूचि है, निर्माताओं का करोडों रूपए लगा है। फिल्में रिलीज नहीं हो पा रही हैं, एक तो मल्टीप्लेक्स वालों का झगडा उपर से यह क्रिकेट टूर्नामेंट। क्रिकेट की तरफदारी बंद कीजिए, अल्पसंख्यक हॉकी प्रेमियों की आवाज को दबाइए मत। टवेंटी टवेंटी में पहले ही दिन धोनी के शेर ढेर हो गए। सवालीराम दबने के बजाय और उभरकर बोले- हॉकी में तुम्हारी टीम कौन से तीर मारती रही है भला, बताओ तो? मैंने कहा- अभी हमारी टीम जीतकर लौटी है, हॉकी से एकजुटता हमारे देश के फिलम प्रेमी तक जमकर दिखा चुके हैं, चक दे इंडिया सुपर डुपर हिट रही थी। सवालीराम ने पलटवार किया- चक दे इंडिया वाले शाहरूख क्रिकेट टीम के मालिक हैं, भले ही हारी हुई सही लेकिन क्या वे हॉकी की टीम के लिए कुछ करते हैं? लगातार सवाल जवाब के इस सिलसिले से मैं थक गया, थक तो सवालीराम भी गए थे, तो मैंने इस निरर्थक निष्कर्ष को पेश करते हुए चीं बोल दिया- हॉकी हमारा घोषित राष्ट्रीय खेल है और क्रिकेट हमारा अघोषित राष्ट्रीय खेल है। इस बीच मोहल्ले में पटाखे फूटने लगे, जून के महीने में दीवाली सा हंगामा सुनाई दिया, पता चला धोने की धुरंधरों ने 20-20 में कोई धमाकेदार जीत हासिल की है। मैं सवालीराम जी को बाहर तक छोडकर अपने कमरे में लौट आया, हालांकि राष्ट्रीय खेल वाले सवाल का जवाब अभी भी नहीं मिल पाया। आपके पास हो तो जरूर दीजिएगा। सुन रहे हैं न मनोहर सिंह गिल साहब..............!

शुक्रवार, 5 जून 2009

पर्यावरण और धरती की चिंता है किसे?

क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा, पंचतत्व से बना शरीरा। रामचरित मानस की यह चैपाई हमारे शरीर का सारभूत तत्व है, यही पांच तत्व हमारे पर्यावरण के भी अंग हैं। प्रकृति ने तत्वों के बीच स्वतः स्फूर्त संतुलन कायम किया हुआ है। यही संपूर्ण विश्व की धुरी है। लेकिन मनुष्य ने करीब एक सदी के दौरान प्रकृति का लगातार गलत ढंग से दोहन किया, जिस इन पांच तत्वों का संतुलन गडबडाता चला गया। अंधाधुंध औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने पर्यावरण विनाश के खतरे के चक्रव्यूह में खुद मनुष्य को फंसा दिया है। दूसरी प्रजातियां जिनमें जीव जंतु और वनस्पतियां शामिल हैं, मनुष्य के अपराध की सजा बेवजह भुगत रही हैं। मनुष्य के अस्तित्व पर लटक रही तलवार भी लगातार नीचे खिसकती जा रही है। पर्यावरण के असंतुलित होने से समूची मानव सभ्यता एक खतरनाक मोड पर खडी है। ऐसा नहीं है कि इस भयावह आशंका की चिंता नहीं की गई, लेकिन जितनी चिंता गई उतना उपायों पर अमल नहीं हुआ, नतीजा ये हुआ कि हालात सुधरने के बजाय और बिगडते चले गए।
पर्यावरण की चिंता पर 1972 में stokhomeसम्मेलन में उपाय सुझाए गए थे लेकिन विकसित देशों ने ही उन पर गंभीरता से अमल नहीं किया। बीस साल बाद पांच से चैदह जून 1992 को ब्राजील के रियो डि जिनोरियो में प्रथ्वी सम्मेलन में यही चिंता और गंभीरता से सामने आई। पर्यावरण और विकास पर इस संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में 170 देशों के शासनाध्यक्ष और 185 प्रतिनिधिमंडल शरीक हुए थे। तीन हजार प्रतिनिधियों से चैदह दिन तक विचार मंथन किया और घोषणा पत्र जारी हुआ था। जैविक विविधता एवं पारिस्थितिकी संरक्षण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे मुददों पर समझौते हुए थे। हालांकि विकसित देशों की दादागिरी के चलते प्रथ्वी संविधान बनाने जैसी महती परियोजना पर विचार नहीं हो सका था। सम्मेलन में 900 पेज का दस्तावेज एजेंडा-21 तैयार हुआ था। जिसमें धरती को स्वच्छ रखने और स्वस्थ पर्यावरण सहित 21 वीं शताब्दी में पर्यावरण की समस्याओं और उनके समाधान भी सुझाए गए थे। आज 18 साल बाद दुनिया पर्यावरण को सम्हालने के मामले में और अधिक नाकाम साबित नजर आ रही है। एक अर्थ में प्रथ्वी सम्मेलन विकसित देशों खासकर अमेरिका की दादागिरी के चलते सफल ही नहीं हो पाया। असल में विकसित देश सारी जिम्मेदारी विकासशील देशों के मत्थे मढने की फितरत बरकरार रखने में हर बार कामयाब हो जाते हैं। इन 18 सालों में ओजोन परत के छेद और गहरा गए हैं। पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग का प्रकोप झेल रही है। कई ग्लेशियरों का अस्तित्व खतरे में है। तापमान का इजाफा न केवल मनुष्य बल्कि अन्य जीव और वनस्पतीय प्रजातियों के लिए भी खतरा बन गया है। खतरा इस बात का है कि ग्लेशियरों का पिघलना रफतार पकडेगा तो भारत समेत कई देशों के तटीय भूभाग जलमग्न हो जाएंगे। अतिव्रष्टि और सूखा लगातार गहरा संकट बनते जाएंगे। तो फिर दुनिया के सामने क्या है विकल्प इस संकट से पार पाने का? इस कठिन प्रश्न का सीधा सा उत्तर भारतीय मनीषा में है। जो जल, वायु, अग्नि, धरती, आकाश पांचों तत्वों को पूजती है, उनका शोषण में भरोसा नहीं करती, बल्कि पाप मानती है। नदियों की पूजा, व्रक्षों की पूजा, अग्नि की पूजा, आकाश की पूजा यानी पर्यावरण के पांचों तत्वों को पूजनीय मानने का भाव ही हमें विनाश के रास्ते से वापस ला सकता है। यहां में ऋग्वेद की ऋचा उदृधत करना चाहूंगा- हे मां धारित्री, उन्हें दंडित करो जो जल और वनस्पतियों को प्रदूषित करते हैं। यह ऋचा तो हम हमारे यहां हर अनुष्ठान के दौरान उच्चारित करते हैं- ओम सामा शांतिः, द्यौ शांतिः, अंतरिक्ष शांतिः प्रथ्वीः शांतिः, वनस्पतयाः शांतिः, औषधयाः शांति, सर्वग्मं शांतिः, शांति रेव शांतिः ओम शांति, शांति, शांतिः।

बुधवार, 3 जून 2009

अभी भी अक्ल ठिकाने नहीं आई लालू की

भले बिहार की जनता ने बडबोले लालू प्रसाद यादव को लोकसभा चुनाव में सबक सिखा दिया हो लेकिन बुधवार को संसद में लालू ने भी दिखा दिया कि उन्होंने सबक नहीं सीखा है, बल्कि अपने दंभ और बडबोलेपन को वे पूरी ताकत से बरकरार रखने पर आमादा हैं। मौका मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनाए जाने पर बधाई देने का था, लेकिन लालू मुसलमानों की कथित तौर पर पैरोकारी करने लगे और शरद यादव के टोकने पर लगभग बदतमीजी से पेश आए। भले ही स्पीकर मीरा कुमार ने इस वाकये को कार्यवाही में शामिल नहीं करने के निर्देश दे दिए लेकिन पूरे देश ने सीधे प्रसारण में लालू प्रसाद की पिटी हुई फिल्म को अपने पुराने तेवर में देखा। यूपीए सरकार में लालू को कोई जगह भले न मिली हो लेकिन वे खुद समेत कुल चार सांसदों को सत्ता पक्ष का हिस्सा बता रहे थे और कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बडी पार्टी भाजपा और दूसरे सबसे बडे ग्रुप एनडीए को विपक्ष की जिम्मेदारी निभाने की नसीहत भी दे रहे थे। चारा घोटाले से लेकर अपनी अशिक्षित पत्नी को मुख्यमंत्री के तौर पर बिहार पर थोपने और रेलवे को चारागाह बनाने तक लालू यादव भारतीय राजनीति के भदेस चेहरे का अपमान करते ही नजर आते रहे हैं। एक अच्छे अवसर पर अपने ही अंदाज में रंग में भंग डालने वाले लालू की बातों पर भले ही लोकसभा में ठहाके लगे हों लेकिन देश को शायद ही यह अंदाज अब भाएं। उम्मीद की जाना चाहिए कि जनता भविष्य में लालू और उन जैसे नेताओं को जो बोलने से पहले न तो सोचते हैं और सोचते ये हैं कि लोग उनकी अदाओं और कडवे बोलों को पसंद करते करते, और कडवा सबक सिखाएगी। दरअसल यह बिहारियों को तय करना होगा कि उनका नेता लालू प्रसाद यादव जैसे नेता होंगे या नीतिश कुमार, सुशील मोदी या अन्य सुलझे हुए नेता। लालू यादव न तो अब बिहार के और न ही बाकी देश के किसी भी इलाके के लोगों के रोल माॅडल हो सकते हैं। देश बहुत आगे निकल गया है, अभी और आगे जाना है, लालुओं को दरकिनार कर ही दिया जाना चाहिए।

मंगलवार, 2 जून 2009

आस्टे्लिया की घटनाओं पर चिंता से ज्यादा जरूरत चिंतन की है

आस्ट्रेलिया में भारतीय मूल के विद्यार्थियों पर हमले से उनके परिवार भयभीत हैं और भारतीय सरकार तथा जनमानस चिंतित है। सरकार ने डिप्लोमेसी के तरीकों से अपनी बात आस्टे्रलियाई सरकार से कह दी है, हालांकि उसका खास असर दिखाई नहीं दे रहा है, बल्कि वहां की पुलिस ने प्रदर्शनकारियों की पिटाई भी कर दी है। अमिताभ बच्चन आस्टे्रलियाई यूनीवर्सिटी की मानद डाक्टरेट लें या न लें, इस असमंजस में हैं। उन्होंने सीधा निर्णय लेने के बजाय लोगों से रायशुमारी कराई है कि वे क्या फैसला करें? अखबारों में पूरे घटनाक्रम पर संपादकीय लिखे जा रहे हैं, राजनीतिक दल भी अपनी अपनी तरह से अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए बयान जारी कर रहे हैं। जाहिर है सभी चिंतित हैं। लेकिन मुझे लगता है यह मामला केवल आस्ट्रेलिया भर का नहीं है, बल्कि दुनिया के लगभग सभी अमीर देशों में पहुंच रहे भारतीयों का है। अमेरिका, इटली, फ्रांस, ब्रिटेन,यहां तक कि फिजी जैसे टापुओं वाले देशों तक पूरी एक श्रंखला है, जहां भारतीय मूल के लोगों की बेइज्जती के वाकयात पिछले एक दशक में ज्यादा सामने आए हैं, खासकर स्टूडेंटस की पिटाई, हत्या की वारदातें बढ रही हैं। कभी सिखों की पगडी को लेकर विवाद होता है तो कभी भारतीय मूल के राजनेताओं के खिलाफ अभियान चलते हैं, कभी वहां बसी बिजनेस कम्युनिटी को खदेडा जाता है। भारतीय नेताओं यहां तक मंत्रियों और प्रधानमंत्री तक का अनादर होता है। कभी वेषभूषा को लेकर तो कभी धार्मिक मान्यताओं को लेकर, तो कभी सिर्फ इसलिए कि भारतीय वहां बिजनेस में स्थापित हो रहे हैं। मैं चिंतित होने से ज्यादा चिंतन पर जोर दे रहा हूं, वो इसलिए कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? हमें इसकी जडों की ओर जाना होगा। दरअसल हमारा देश दुनिया के विकसित कहे जाने वाले देशों की तुलना में उनके पैमानों पर गरीब देश है। इस तुलना और इन पैमानों को मानने वालों की हमारे अपने देश में भी कमी नहीं है। अन्यथा शिक्षा के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया या ब्रिटेन जाना जरूरी है क्या? क्या हमारे देश में शिक्षा उपलब्ध नहीं है? दरअसल हमारे यहां पूरा एक वर्ग है जो यहां पढकर भी विदेश में बस जाना चाहता है और वहीं पढकर वहां बसना तो उनके लिए जैसे सोने पर सुहागा है। हमारे यहां से जो लोग वहां जाकर बस जाते हैं, वे कभी कभी आते हैं तो उनका इस्तकबाल जिस तरह होता है, उससे नए लोग ऐन केन प्रकारेण विदेश जाने का जुनून पाल लेते हैं। शिक्षित ही क्यों अर्ध शिक्षित और अशिक्षित भी दलालों के जरिए तो कभी कबूतरबाजी के जरिए विदेश जाने के लिए लालायित रहते हैं, यहां तक सांसदों के इस गोरखधंधे में शामिल होने के मामले सामने आ चुके हैं। जब हम अपनी शिक्षा को कमतर, हमारे देश को कमतर और विदेश में जा बसे लोगों को विदेशियों की ही तरह श्रेष्ठ मानने लग गए हैं तो वहां इस तरह की घटनाएं तो होना ही थीं। आखिर वहां के लोग भी तो बेरोजगारी जैसे संकट से जूझ रहे हैं, उन्हें लगता है कि भारतीय मूल के लोग उनके रोजगार खा रहे हैं, उनके जीवन में दखल दे रहे हैं, इसलिए वे रिएक्ट करते हैं। यहां तक कि आधे अश्वेत राष्टपति बराक हुसैन ओबामा भी भारत में बैंगलौर और अमेरिका में बसे भारतीयों को अमेरिकियों के लिए प्रतिद्वंद्वी मान चुके हैं। मैंने अपने ही रिश्तेदारों में ऐसे कई लोगों को जानता हूं, जिनके परिवारों से कोई एक विदेश में जा बसा है और वह पूरे खानदान का निर्णायक बन बैठा है, वही तय करता है भारत में बसे उनके संबंधियों के बच्चे क्या पढेंगे, क्या करेेंगे, उनकी शादियां कहां होंगी। जाहिर है वह अपने इन मातहत संबंधियों को विदेश आने का ध्येय दे देता है। मैं ऐसे बच्चों को जानता हूं, जिनके लिए जीवन का एक ही अर्थ है, किसी भी तरह अमेरिका या ब्रिटेन या उसके समकक्ष किसी विकसित देश में जा बसना। मेरे एक रिश्तेदार जब भी भारत आते हैं, उन्हें जिस तरह का रूतबा हासिल होता है, उसे देखकर लगता है, आखिर ये सब क्या है? मेरे यह सम्माननीय रिश्तेदार जब भी मुझसे बात करते हैं, भारत के पिछडेपन, कानून व्यवस्था न होने और भ्रष्टाचार की निंदा में पूरा वक्त लगा देते हैं। एक दफा मैंने उनसे पूछ लिया कि माननीय आप विदेश क्यांे गए, यहीं रहकर सुधार और विकास में क्यों नहीं लगे? फिर वहां सब कुछ ठीक है, तो क्या आपने कर दिया? क्या हम सब पूरा का पूरा सवा सौ करोड का देश विदेशों में जा बसे? आखिर करें क्या हम? हमारे देश में भी विदेशी आते हैं, लेकिन हम उन्हें मारते पीटते नहीं हंै, हां, अचरज जिज्ञासा और सम्मान से जरूर देखते हैं। विश्व बंधुत्व वसुधैव कुटुंबकम की परंपरा निभाना अच्छी बात है, लेकिन अपने देश की भाषा, वेषभूषा, संस्कारों को तिलांजलि देने वालों को सम्मानित करने का नतीजा विदेशों में पहुंचने वाले हमारे स्टूडेंटस का भुगतना पड रहा है। हम अपने देश की शिक्षा, रहन सहन और जीवन यापन को बेहतर बनाने पर जोर क्यों नहीं दे रहे? क्यों ललित मोदी जोहानसबर्ग में आईपीएल और अमिताभ बच्चन विदेशों में आईफा करते हैं? क्यों मुंबई के हिंदी सिनेमा के दिग्गज सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी हिंदी में नहीं अंग्रेजी में पटर पटर करते हैं? क्यों हमारे मंत्री अपने राज्यों की भाषाओं में या राष्ट्र भाषा में शपथ लेकिन के बजाय अंग्रेजी में शपथ लेना श्रेष्ठ समझते हैं? निज गौरव निज संस्कृति भुलाने और विदेश जाने को श्रेष्ठ मानने का भाव ही हमारे बच्चों को विदेशों में पिटवा रहा है। जरा सोचिए जो महात्मा गांधी के साथ हुआ वहीं श्रवण कुमार के साथ भी हो रहा है, लेकिन क्या आज के हमारे विदेशगामी बच्चे गांधी जैसी सामथर््य और देश प्रेम अपने दिलों में रखते हैं? जरूरत इस बात की है कि हम विदेशगामी भले बनें लेकिन हमारे देश और उसकी विरासत पर गर्व करना भी सीखें। हमारे यहीं शिक्षा को और बेहतर बनाएं, रोजगार के और अवसर जुटाएं, देश को ताकत बनाएं, ताकि हमारे लोगों को विदेश जाने का लालच सताए ही नहीं, बल्कि दूसरे मुल्कों के लोगों को भारत में बसने की चाहत पैदा हो, यह असंभव नहीं है, हम सबको इसे हकीकत बनाने में अपना अपना योगदान करना है। सुन रहे हैं मनमोहन सिंह जी, लालकृष्ण आडवाणी जी, मोहन भागवत जी, राहुल गांधी जी, अमिताभ बच्चन जी और विदेश जाने के लिए वीजा दफतरों के सामने कतारों में लगे सभी सज्जन जी, प्रतियोगिता परीक्षाओं में अमेरिका का नक्शा तलाश रहे विद्यार्थी जी।

सोमवार, 1 जून 2009

पावस दो क्षण

कहां हो तुम
छाए नभ में बादल चहुंओर
गरज उठे घन घनघोर
दमक उठी दामिनी
कंपित हुआ हृदय
कहा- प्रिया कहां हो तुम

(एक जून 1989 गंजबासौदा)

न डर है न अंधेरा है
बादलों का घेरा है,
चहुंओर अंधेरा है।
गरजता है बादल,
चमकती है बिजली
डरता है मन,
सूझता न पथ है,
जिस बिजली से कांपता है मन
वही दिखाती है पथ भी,
बादलों के शोर में सुनो संगीत
चमकती बिजली में पा लो उजास
तो फिर न अंधेरा है
न मन में डर,
सामने है बरखा है
उसकी निर्झर और आनंद का डेरा है।
- सतीश एलिया बेबाक
(दो जून 1998 भोपाल)